SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ चाणक्यसूत्राणि अपने समाज के अभ्युत्थान में दान करना मनुष्य का अत्यावश्यक कर्तव्य है। दान वर्धिष्णु व्यक्ति या समाजकी अनिवार्य मावश्यकता है। दान ही दाताका संचित समर धन है । वह सब समय दाताका साथी बना रहकर उसे धनवान बनाये रखता है। दाताके लिये दरिद्रता नामकी कोई स्थिति नहीं है। मनुके शब्दों में-- "अवन्ध्यं दिवसं कुर्यादानाध्ययनकर्मसु" मनुष्य अपने जीवन के किसी भी दिन को (१) दान, (२अध्ययन तथा (३) मानवोचित कर्तव्य-पालन के बिना न बीतने दे। (अनुचित घनिष्ठता बढानबालोंसे सावधान रहो) पटुतरे तृष्णापरे सुलभमतिरून्धानम् ॥ २२५॥ अनुचित चतुर लोभपरायण व्यक्ति में अनुचित घनिष्ठता बढाने की प्रवृत्ति रहती है। विवरण-तिक चतुर लोभपरायण मनुष्य में ही किमीमे अति घनिष्ठता बढाने की प्रवृत्ति संभव है। ऐसे लोगोंकि धोके में पाकर विश्वास न करना चाहिय । शठता, धूर्तता, माया, कौटिल्क, अन्न और छल से ही किसी नये मनुष्यसे प्रतारणामयी धनिष्ठता बढाई जाती है। अति चालाक लोमपण. यण लोग प्रतारक होते हैं। किसीकी अतिघनिष्टता बढानेकी प्रवृत्तिको शंकाकी दृष्टि से देखना चाहिये ।। (लोनसे हानि) तृष्णया मतिश्छाद्यते ।। २.६।। लोभ मनुष्यकी बुद्धिको ढकदेता है। विवरण- लोभसे मनुष्यका बुद्धिभ्रंश होजाता है और वह उस संबंधमें मौचित्य हिताहित या कर्तव्याकर्तव्य समझनेकी योग्यता रखो बैठता है। लोभेन बुद्धिश्चलति, लोभो जनयते तृणम् । तृषार्तो दुःखमाप्नोति परह च मानवः ॥
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy