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________________ १९६ चाणक्यसूत्राणि द्रोही होना है । वध्य - घातक संबंध रखनेवाले सत्यासत्योंका सहवास असंभव है । नीचोंकी शिष्टता सौजन्य संपत्ति आदि गुण पर-वंचनके दुष्ट उपाय. मात्र होते हैं । नीचोंके गुण चोरके भोठे रामनामी दुपट्टोंके समान नीच कार्मो में ही उपयुक्त होते हैं । इसलिये राज्यव्यवस्थाको धोके में आकर कपटशिष्टाचारी पापाचारियोंको अपनी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रसेवामें सम्मिलित करके लक्ष्यभ्रष्ट न होना चाहिये । ( संसर्ग के अयोग्य ) दुर्जनैः सह संसर्गः कर्तव्यः ॥ २१५ ॥ बुद्धिमान लोगोंको दुष्ट ( हीन, नीच तथा क्रूर ) लोगों से घनिष्ठता नहीं रखनी चाहिये । अधमांस्तु न सेवेत य इच्छेद् भूतिमात्मनः । ( विदुर ) कल्याणार्थी लोग अधम कोटिके लोगोंके साथ न रहें । ( दुष्टों के गुण भी दोष ) शौण्डहस्तगतं पयोऽप्यवमन्येत ।। २१६ ॥ मद्यपके हाथके दूधको भी मद्यके समान ही त्याज्य मानना चाहिये । विवरण - मदान्धोंकी कृपा भी भयंकर और त्याज्य मानी जानी चाहिये । दुष्टोंके दिखावटी गुण भी दोष ही होते हैं। ऐसोंके साथ घनिष्ठता अनर्थोत्पादक होती है । उनके गुणोंसे कृपान्वित होनेकी भूल कभी न करनी चाहिये । दुष्टोंकी कृपामें भी विनाशके विषैले बीज छिपे रहते हैं । अव्यवस्थितचित्त प्रसादोऽपि भयंकरः । अव्यवस्थित मनवालोंकी तो कृपा भी विनाशक होती है । ( सची बुद्धि ) कार्यसंकटेष्वर्थव्यवसायिनी बुद्धिः || २१७ ॥ कार्य-संकटमें अर्थात् ( कर्तव्य में विघ्न उपस्थित होनेपर )
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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