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________________ निरपराधोंको कष्ट मत दो १८३ निर्णय करना भी यहच्छासे उसीका कर्तव्य होता है। यह कर्तव्य उसे न्यायाधीशका मासन देदेता है । जिसे जब न्यायाधीशका बासन मिलजाता है, उसे तब क्षमा करनेका भी अधिकार प्राप्त होजाता है। इस अवसरपर क्षमाशीलतारूपी मानव-धर्म-पालन में प्रमाद न करना चाहिये । राजा न्यायनिष्ठ प्रजाकी भोरसे ही न्यायाधीशके पासनपर नियुक्त होता है । प्रजाकी न्यायनिष्ठा राजचरित्र में प्रतिध्वनित होकर प्रकट रहे यही तो गजाकी योग्यता है। अपराधियों को दण्डमुक्त रखना प्रजाके लिये असन्तोषजनक होने के कारण अपराधियों की दण्डमुक्तिको क्षमामें सम्मिलित नहीं किया जासकता । अपराधीको दण्डित करके समाजकी शान्ति-रक्षा करना राजधर्म है । निरपराधको दण्ड देकर समाजमें न्यायका हनन करना समाज के लिये हानिकारक है। इस दृष्टि से क्षमा उपयुक्त क्षेत्र (पात्र) का निर्णय करना राजाका अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है । कुछ थोडेसे मनुष्य ऐसे भी होते हैं जिनके चित्तपर क्षमासे न्यायका प्रभाव डालना संभव होता है। ऐसे लोगों को क्षमारूपी उपायसे समाज-हितेषी नागरिक बनानेका अवपर भाता है। ऐसे समय उन्हें क्षमा करदेना ही न्याय में सम्मिलित हो जाता है । गरूपापमें लबुदगद तथा लघुपापमें गरूदण्ड दोनों एक जैसा अन्याय है । इसलिये क्षाका उपयुक्त पात्र उभीको समझना चाहिये, जिलका अपराध क्षमासे क्षालित होजाना निश्चित रूपसे प्रमाणित होजाय । एसे मनु यको क्षमाके आंतरिक्त दण्ड देना उसके साथ अन्याय होगा। समाके द्वारा पापका प्रोत्साहन करना कभी क्षमाशीलता नहीं माना जा सकता । निर्विचारभावसे अपराधीको क्षमा करते रइकर क्षमाशीलताका प्रमाणपत्र लेकर अपना यशोलोभ चरितार्थ करना किसी भी रूपमें प्रशंसनीय नहीं है। ___ समाज-हित ही क्षमाका दृष्टिकोण होना चाहिये । क्षमासे किसी व्यकि. विशेषको अनुगृहीत करके, उसकी व्यक्तिगत कृतज्ञताका भाजन बन जाना तो क्षमाका एकांगी दूषित दृष्टिकोण है। यह न होना चाहिये । समाज.
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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