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________________ १८२ ही सिरको नीचा करना होता है। दूसरेका अपमान करनेकी भावनावाला मनुष्य स्वाभिमान से वंचित होजाता है । दूसरेका अपमान करनेकी भावना के मूलमें यह भ्रान्ति छिपी रहती है कि अवमन्ता अपने सिरको स्वभावसे सदा ऊँचा रखना नहीं चाहता किन्तु शत्रुके सिरको ऊँचा देखते हो उसे नीचा करना चाहता है । सत्यनिष्ठ विजिगीषुका सिर तो निरपेक्ष रूपमें स्वभावसे सदा ही ऊँचा रहता है । उसके शत्रु असत्यके दास असुरका सिर स्वभावसे सदा ही नीचा होता है । सत्यनिष्ठ विजिगीषु अपने सिस्को सत्यकी महिमासे समुन्नत रखकर ही अपने शत्रुके सिरको नीचा बिन्दू कर देता है । अपने सिरको निरपेक्षरूप से स्वभाव से ऊँचा बनाये रखनेक अतिरिक्त शत्रुके सिरको नोचा दिखानेका दूसरा कोई उपाय संभव नहीं है जिसका सिर स्वभाव से ऊँचा नहीं होता, वडी शत्रुके सिरको अपनेसे ऊँचा पाकर, उसे बलपूर्वक नीचा करनेका व्यर्थ प्रयत्न किया करता है । यों अपमान करना चाहनेवाला ही स्वयं अपमानित होजाता है 1 सत्यनिष्ठ विजिगीपुके पास मानापमानकी यह कसोटी स्वयंमेव विद्यमान रहती है । 1 पाठान्तर -- कञ्चिदपि किसी भी पुरुषका अपमान न करना चाहिये । चाणक्यसूत्राणि .. ( निरपराधोंको कष्ट मत दो ) क्षन्तव्यमिति पुरुषं न बाधेत् ॥ २०८ ॥ क्षमा करना मानव-धर्म है इस दृष्टिको लेकर क्षमायोग्य पात्रोको सन्ताप मत पहुँचाओ । विवरण - पात्रापात्र विचार न करके अपात्रको क्षमा करना तथा पात्रको क्षमासे वंचित रखदेना विचारशून्यता है। क्षमा राजधर्म है । दण्डधारी ही निरपराधोंको अदण्डित रखने तथा अपराधियोंको दण्डित करने का अधिकार रखते हैं । परिस्थितिके कारण जब जिसे अपराधियों को दण्ड देनेका अधिकार मिलता है, तब उसके अपराध या निर्दोषताका
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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