SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० चाणक्यसूत्राणि अपात्रके समक्ष सत्यका प्रचार कभी न करे। सत्य सुपात्रों या सत्यप्रेमियोंकी दृष्टिमें ही श्रद्धा पाता है । सत्य सुपात्रकी दृष्टि में कभी अश्रद्धेय नहीं होता। श्रद्धालुसे सत्य कहनेमें ही सत्यकी उपयोगिता है । अश्रद्धालुसे सत्य कहना भैसके सामने बीन बजाना है। अनावश्यक सत्यवचन वक्ताकी विचारशून्यता होनेसे व्यर्थ भाषण होजाता है। मिथ्या अनावश्यक होना ही व्यर्थ बातकी व्यर्थताका स्वरूप है। औचित्य अनौचित्यसे वचनकी सत्यासत्यताका निर्णय किया जाता है। अदेश अकाल तथा अपात्र में प्रयुक्त सत्य वचन भी असत्य वचन जितना ही अनिष्टकारी होकर असत्य बन जाता है। सत्य या असत्य, बातों या शब्दों में सीमित न होकर उद्देश्यमें सीमित रहता है । उद्देश्यसे हो सत्यासत्यको जाना जासकता है। ( सत्यकी अश्रद्धेयता अनिवार्य ) . (अधिक सूत्र ) नाग्निमिच्छता धूमस्त्यज्यते । जैसे धूम और अग्निका नित्यसाहचर्य होनेसे अग्निसंग्रहार्थी लोगोंसे धूमसे नहीं बचा जासकता, इसी प्रकार सत्य और अश्रद्धेयताका नित्यसाथ होनेसे सत्यकी रक्षा करने के इच्छुक उसे अश्रद्धयता दोषस मुक्त नहीं करसकते। विवरण --. उन्हें सत्यकी अश्रद्धेयताका ध्यान रखकर उसे बचा बचा. कर सत्यकी प्रतिपालना करनी पड़ती है । सत्य के साथ अश्रद्धेयता तथा अमान्यता नियमसे लगी रहती है। साधारण लोग सत्यको अव्यवहार्य भादर्श कहकर उससे बच जाते हैं । सत्यका यह अनादिकालीन दूधण है कि वह सर्वसाधारणको अपने लिये हानिकारक और प्रतिकूल लगता है । सत्यके इस दूषणको हटानेका एकमात्र यही उपाय है जो ऊपरवाले सूत्र में वर्णित हुभा है कि अनधिकारीसे सच्ची बात न कही जाय । योग्यदेश, योग्यकाल तथा योग्यपानसे बात कहने में ही बात कहनेकी सार्थकता है। सत्य भी हो और श्रद्धेय अर्थात् प्रिय भी हो यह संभव नहीं है। जब तक सत्य मनके अपनाये किसी असत्य अर्थात् मोहात्मक विचारपर घातक
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy