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________________ १२० चाणक्यसूत्राणि करता है तब वह विवेक से स्थानान्तरित होकर अविवेकाश्रित होजाता तथा करनेवालेको थका डालता है । तब वह उससे कर्तव्यपालनका सन्तोष छोनकर कर्मको अतिभारका रूप दे देता है। ऐसा कर्म कर्ताके सन्तोषका कारण न बनकर दुःखका कारण बनजाता ( अर्थात् कामनाको अपूर्ण रख देता ) है । कामनाका अपूर्ण रहजाना ही दुःख है । किसी भौतिक फलकी अभिलाषा हो कामना है । यहां यह बात विशेषरूपसे ज्ञातव्य है कि कर्मके संबन्ध में मनुष्यका अधिकार कहां तक है ? मनुष्यको जानना चाहिये कि कर्तव्यका भौतिक फल कर्म करनेवालेके अधिकार में नहीं होता। यह हम इसलिये कहते हैं कि वह कभी मिलता है और कभी नहीं भी मिलता। जब वह नहीं मिलता, तब फलाकांक्षी मानवका दुःखी होना अनिवार्य हो जाता है । परन्तु यह दुःख मनुष्यका स्वाधीन दुःख है । यदि मनुष्य दुःखी होना न चाहे तो उसके पास दुःखी होने या दुःख आनेका कोई कारण नहीं है । जानबूझकर स्वाधीन दुःखका वरण करना ही मनुष्यकी मूढता है | मनुष्यको यह भूलना नहीं चाहिये कि उसका अधिकार कर्तव्यपालन तक ही है ! फल तक नहीं। जब वह अपनी इस अधिकारसीमाको भूल जाता है तब ही फलकी अनुचित इच्छा करबैठता है । यही कर्मका अतिभार है । अपनी कार्यनीति से अपने विवेकको सन्तुष्ट रखना मनुष्यका कर्तव्य है और यही उसका महान उत्तरदायित्व है। यदि मनुष्य अपने विवेकको सन्तुष्ट करने के उत्तरदायित्वको भूल न गया हो तो उसका कम उसके सामर्थ्य तथा अधिकार तक ही सीमित रहता है फिर वह उसे मर्यादासे अधिक नहीं बढाता । फिर वह अविभारका रूप धारण नहीं करता और सुखदायी बन जाता है । अपने विवेकको सन्तुष्ट रखनेवाले इस प्रकारके अफलाकांक्षी मनुष्यका कर्मोत्साह, आग्रहपूर्वक अपनाये जानेवाले, स्वयं ही अपना फल बन जानेवाले, बडे से बड़े कर्तव्यको सुखसाध्य बनाकर उसके सम्मुख उपस्थित कर दिया करता है । संसार में दो प्रकार के कर्ता पाये जाते हैं। एक तो वे जो भ्रान्त सुखके लिये कर्म करते हैं । ये ही लोग सकाम या सदोष कर्ताकी श्रेणी में आते हैं । 1
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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