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________________ चाणक्यसूत्राणि पीछे चलनेमें कोई पुरुषार्थ नहीं है । उसे तो कर्तव्याकर्तव्य विचार के द्वार जो कि एक सच्चे मनुष्यको करना चाहिये उसे करने में ही अपना कर्त्तापन तथा कर्तव्यपालनका सन्तोष दीखता है। उसे तो जिस काममें सन्तोष मिलता है वही उसके लिये सुसाध्य तथा जिसमें असन्तोष दीखता है वही उसके लिये दुःसाध्य होता है । देवाधीन रहनेसे तो कर्तव्य दुःसाध्य हो हो जाता है तथा पुरुषार्थपरायण रहनेसे कर्तव्य सुसाध्य बनजाता है । देवाधीन रहने में कर्तव्यभ्रष्टता होती है और कर्तव्यको त्यागनेमें सुसाध्यताकी भ्रान्ति होती है। इस भ्रान्तिके विरुद्ध मानवीय पुरुषार्थको जगाये रखना ही इस सूत्रका अभिप्राय है। सूत्रकार स्पष्ट भाषामें कह रहे हैं कि मनुष्य देवाधी. नतारूपी निकम्मेपनसे बचे । देवाधीनता भयंकर अभिशाप है। पाठान्तर- देशकालविहीन ......... । योग्य परिस्थिति, योग्यकाल तथा योग्यकर्तासे हीन कार्य अनायास साध्य दीखनेपर भी कष्ट साध्य तथा असाध्य होजाते हैं । ( कर्ममें देशकालकी परीक्षा कर्तव्य । नीतिज्ञो देशकालो परीक्षेत ॥ ११२॥ नीतिज्ञ अर्थात् व्यवहारकुशल मनुष्य परिस्थिति और अवसर दोनोंका पूर्ण परिचय पाकर काम करे । विवरण- वह परिस्थिति तथा उपयोगी कालको बिना पहचाने काम न करे । कर्ताके पास कर्तन्यकी संपूर्ण विवेचना ( साधन क्रम माआदिका पूर्ण परिचय ) होनी चाहिये कि यह काम अमुक समयमें, अमुक परिस्थिति में ममुक साधनोंसे, इतने श्रमसे इस विधिसे हो सकता है । भारविके शब्दोंमें " सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ” मनुष्य सहसा कोई काम भारम्भ न करे। मनुष्य कार्यविषयक अविवेकसे विपत्तियोंका घर बन जाता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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