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________________ ८२ चाणक्यसूत्राणि परिभाषाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । कभी कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कतव्यको बाह्यरूप देने में असमर्थ रह जाता है। परन्तु कर्तव्यको मानसिक रूप प्राप्त होते ही कर्तव्य साकार हो जाता है। कर्तव्यको बाह्यरूप मिलना प्राकृतिक स्वीकृति पर निर्भर होता है । ज्ञानी तो कर्तब्यके माभ्यन्तरिक रूपको ही मुख्यता देता है। मनुष्यको निश्चयात्मिका बुद्धि हो कर्तव्य तथा कर्तव्य क्षेत्र होती है। मनुष्य के पास निश्चयात्मिका बुद्धिका न होना ही कर्तन्यकी कठिनताका यथार्थरूप होता है । मानवमें निश्चया. रिमका बुद्धिका प्रकट हो जाना ही कर्तव्यकी सुगमता है। ___ मनुष्य काँमें या तो स्वार्थ या कर्तव्यबुद्धि दो ही बातोंसे प्रवृत्त होता है। इनमेंसे मूर्ख संसारका बहुमत केवल स्वार्थ से कर्म करता है और उपा. योंके गर्हित गर्दितपनेपर कोई ध्यान नहीं देता। परन्तु विचारसम्पन्न लोग करुणा भादि उदात्त मानवीय गुणोंसे प्रेरणा पा पाकर कर्तव्यबुद्धिसे कर्म किया करते और उपायशुद्धिपर अपना संपूर्ण ध्यान केन्द्रित रखते हैं । वे कामकी सफलताको इतना महत्व नहीं देते जितना उपायोंकी साधुताको देते हैं । वे तो प्राप्त साधनोंके सदुपयोगको ही सफलता मानते हैं । पाठान्तर--- उपायपूर्व कार्य न दुष्करं स्यात् । ( अनुपायसे कार्यनाश ) अनुपायपूर्व कार्यं कृतमपि विनश्यति ॥ ९५ ।। पहिले उपाय स्थिर किये बिना प्रारंभ किये हुए कार्य नष्ट हो जाते हैं। विवरण- उपस्थित कर्तव्य में कौनसे साधन या उपाय उपयुक्त होंगे? इसका निणय तभो होसकता है, जब पहले तात्कालिक कर्तव्यके सम्बन्धमें निश्चयात्मिका बुद्धि बन चुकी हो । कर्तव्य की भ्रान्ति ही कर्तव्य कराती है । कर्तब्यके सम्बन्ध में अन्धेरे में रहकर कर्तव्य नहीं किया जा सकता। अपने कर्तव्यको ज्ञाननेत्रसे स्पष्ट देखनेवाला ही कर्तव्य कर सकता है। भकर्तव्य करना और कर्तव्य त्यागना ही स्वीकृत कर्तव्यकं नष्ट होने का
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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