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________________ [ १८५ ] | ३६ मोह १-३१५, परिचितव्यामोह संसार का मूल है सब से पहिले इसी को भेदविज्ञान से शिथिल करना मोक्षमार्ग का पहिला कदम है। २-४४८. आत्मवली वही है जो जिस वस्तु से अधिक मोह है उससे रागत्यागपूर्वक मुख मोड़ ले, इसके लिये अहंकार व अहंधुद्धि के विनाश की सर्व प्रथम आवश्यक्ता है । ३-५१६. संसार के जाल में कब तक फंसा रहेगा, जब तक फँसा रहेगा तब तक दुखी रहेगा, अतः सर्व को गमता छोड़ो, अपना ध्यान करो, सँसार में कुछ भी न किसी का हुआ, न होगा। ४-६८३. दुःख में अनंतकाल व्यतीत करदिये, वह दुःख भी क्या है ? केवल ममता !...अपना कुछ होता है नहीं फिर...ममत्वभाव क्यों ? इस गलती का जो फल भोगोगे
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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