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________________ [ १८४ ] ७-६७४. परिचय के झमेले में आत्मदृष्टि नहीं रहती, आत्म बल का प्रयोग कर अपरिचित बने रहने में आत्मा को हानि नहीं, आत्मा की हानि राग द्वाप बसा लेने से है। ८-३७३. जो तुमने पूर्व पाप उपार्जित किया वह तुम्हें ही तो भोगना है शांति से सहो अथवा उस दशा से भी अपने स्वभाव को भिन्न मानकर निराकुल रहो अथवा सोचोये कर्म अपना समय पाकर विदा हो रहे हैं, यह लाभ ही की बात है अब कर्तव्य है जो राग द्वष न करो ताकि नवीन बंधन न हो। 8-४४६ जीवन उन्हीं का सफल है जो जितेन्द्रिय और जितमोह बन जाते है। १०-२३४. यदि कर्मबंध नहीं चाहते, देह प्राप्ति नहीं चाहते पौद्गलिक प्राण नहीं चाहते तो इन सबका मूल जो मोह व रागभाव है उसे छोड़ो। की याचिका की पावन व का
SR No.009899
Book TitleAtma Sambodhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Satsang Seva Samiti
Publication Year1955
Total Pages334
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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