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________________ (१२२) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि ॥ नाना प्रकार के श्रतों का विचार, श्रुता बिचार ऐक्य, सूक्ष्मक्रिय और उत्सन्नक्रिय, इन भेदों से वह (शुक्लथ्यान ) चार प्रकार का जानना चाहिये ॥५॥ श्रत द्रव्य में पर्यायों को एकत्र कर अनेक प्रकारके नयोंका अनप्तरण करना तथा अर्थ व्यञ्जन और दूसरे योगोंमें संक्रमण (१) से युक्त करना; पहिः ला शुक्ल ध्यान है ॥ ६ ॥ इसी प्रकार से श्रुत के अनुसार एक पर्याय में एकत्त्व का वितर्क करना तथा अर्थव्यञ्जन और दूसरे योगों में संक्रमण करना; दूमरा शुक्ल ध्यान है ॥७॥ निर्वाण (२) में जाते समय योगों (३) को रोकने वाले केवली (४) का सूक्ष्मक्रिया वाला तथा अप्रतिपति (५) जो ध्यान है; वह तीसरा शुक्ल ध्यान है ॥८॥ शैलेशी अवस्था को प्राप्त तथा शैल के समान निष्प्रकम्प (६) केवली का उत्सन्न क्रियायत तथा अप्रतिपाति जो ध्यान है; वह चौथा शक्ल ध्यान है ॥६॥ एकत्र योगियों को पहिला, एक योगोंको दूसरा, तनुयोगियोंको तीसरा तथा नियोगों को चौथा शुक्ल ध्यान होता है ॥ १०॥ ध्यानके जानने वाले पुरुषोंने जिस प्रकार छद्मस्थके स्थिर मनको ध्यान कहा है उसी प्रकार के वलियोंके निश्चल भङ्ग (७) को ध्यान कहा है ॥११॥ पर्व के अभ्यास से, जीवके उपयोग से, अथवा कर्म की निर्जरा के हेत से अथवा शब्दार्थ के बहुत्व से, अथवा जिन वचनसे, अन्य योगीका ध्यान कहा गया है ॥ १२ ॥ अतावलम्बन पूर्वक (८) प्रथम ध्यान में पूर्व श्रुतार्थके सम्बन्धसे पूर्वधर छमस्य योगियोंके ध्यान में प्रायः ( श्रुतावलम्बन ) युक्त रहता है ॥ १३ ॥ क्षीण दोषवाले तथा निर्मल केवल दर्शन और केवल ज्ञानवाले पुरुषों को सकल () अवलम्बन (१०) के विरह (११) से प्रसिद्ध अन्तिम (१२) दो ध्यान कहे गये हैं।॥ १४ ॥ . १-गति, सञ्चार ॥२-मोक्ष ॥ ३-मन वचन और शरीरके योगोंको ॥ ४-केवल ज्ञानवान् ॥ ५-प्रतिपतन (नाश) को न प्राप्त होनेवाला ॥६-कम्पसे रहित॥ ७-अचल "शरीर। -श्रतके आश्रयके साथ ॥ -सब ॥ १०-आश्रय ॥ ११-वियोग । १२-पिछले ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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