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________________ (६८) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि। उदान वायु रक्त (१) है, वह हृदय, कमठ, ताल, भ्र मध्य (२) तथा म. स्तक में रहता है, उसको गमन और प्रागमन के नियोग (३) से वश में करना चाहिये ॥ १८॥ ___नासिका के आकर्षण (४) के योग (५) से उसको हृदय आदिमें स्थापित करना चाहिये तथा बलपूर्वक उसे ऊपर को चढ़ाकर रोक २ कर वश में करना चाहिये ॥ १८ ॥ - व्यान वायु सर्वत्र त्वक् (६) में रहता है, उसका वर्ण इन्द्र धनुष के समान है, उसे सङ्कोच (७) और प्रसरण (८) के क्रम से कुम्भक के अभ्यास से जीतना चाहिये ॥ २० ॥ प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान इन पवनों में क्रम से , पैं, बैं, लौं, इन वीजों का ध्यान करना चाहिये ॥ २१ ॥ प्राण वायुका विजय करने पर जठराग्नि की प्रबलता, दीर्घश्वास, वायु का जय तथा शरीर का लाघव (c) होता है ॥ २२ ॥ ... समान और अपान वायु का विजय करने पर क्षत (१०) और भा(११) प्रादि का रोहण (१२) होता है, जठराग्नि का प्रदीपन होता है, मांस की अल्पता होती है तथा व्याधि का नाश होता है ॥ २३ ॥ उदान वायु का विजय करने पर उत्क्रान्ति (१३) तथा जल और पड़ (१४) नादि से अबाधा (१५) होती है तथा व्यान वायु का विजय करने पर शीत और उष्ण से अबाधा, कान्ति तथा निरोगता होती है । २४ ॥ प्राणी के जिस २ स्थान में पीड़ा दायक (१६) रोग हो, उसकी शान्ति के लिये उसी स्थान पर प्राणादि पवनों को धारण करे ॥२५॥ इस प्रकार बारम्बार प्राण प्रादि के विजय (१७) में अभ्यास कर मन की स्थिरता के लिये सदा धारण आदि का अभ्यास करना चहिये ॥२६।। १-लाला ॥२-भौंहोंका बीच का भाग । ३-निरोध, रुकावट ॥ ४-खींचना ।। ५-सम्बन्ध ॥६-त्वचा, चमड़ी ॥ ७-सिकोड़ना ॥ ८ फैलाना ॥ -लघुता, हलकापन १०-घाव, जखम ॥११-हड्डी आदिका टूटना ॥ १२-भरजाना, जुड़जाना ॥१३-उ लङ्कन उलांघना ॥ १४-कीचड़ ॥ १५-बाधा (पीड़ा) का न होना । १६-पीड़ा को करनेवाले ॥ १७-जीतने ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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