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________________ तृतीय परिच्छेद ॥ इससे जो विपरीत करना (१) है उसे अथर (२) कहते हैं ॥ ९॥ रेचन के करने से उदर की व्याधि तथा कफ का नाश होता है तथा पूरक के करने से पुष्टि और व्याधि का नाश होता है ॥ १० ॥ ___ कुम्भक के करने से हृदयकमल शीघ्र ही विकसित (३) होजाता है, भी. सर की ग्रन्थि (४) छिन्न (५) हो जाती है तथा बल और स्थिरता की भली भांति वृद्धि होती है ॥ १९ ॥ प्रत्याहार से बल और कान्ति (६) बढ़ती है तथा शान्ति से दोषों की शान्ति होती है तथा उत्तर और अधर का सेवन करने से कुम्भक की स्थिरता होजाती है ॥ १२ ॥ . स्थान, वर्ण, क्रिया, अर्थ और वीज का जानने वाला पुरुष प्राणायाम के द्वारा प्राण (७) अपान, समान, उदान और व्यान वाय को भी जीत सकता है ।। १३) - प्राण वायु नासिका के अग्रभाग, हृदय, नाभि तथा चरणों के अगुष्ठों (८) के अन्त में रहता है, उसका वर्ण हरा है तथा गमनागमन (ए) के व्यवहार से अथवा धारण से उसका विजय होता है ॥ १४ ॥ नासिकादि स्थान के योग से वारम्बार पूरण तथा रेचन करने से गमनागमन का व्यवहार होता है तथा कुम्भन से धारण होता है ॥ १५ ॥ अपान वाय का वर्ण कृष्ण है, वह गले की पिछली नाडियों में गुदा में तथा चरणों के पृष्ठ भाग में रहता है, वह अपने स्थान के योग से बारम्बार रेचन और पूरण के करने से जीता जासकता है ॥ १६ ॥ समान वायु शुक्ल है, वह नाभि, हृदय तथा सर्वसन्धि (१०) स्थानों में रहता है वह भी अपने स्थान के योग (११) से बारम्बार रेचन और पूरण करने से जीता जा सकता है ॥ १७ ॥ १-बाह्य पवन को पीकर उसे खींचकर जो नीचे स्थानों में ले जाकर धारण करना ॥२-अधर अर्थात् ऊपरी भागले नीचले भाग में ले जाना ॥ ३-खिला हुआ। ४-गांठ ॥ ५-कटी हुई ॥६-शोभा, दीप्ति ॥ ७-प्राण आदि वायु का स्थान आगे कहा जावेगा ॥ ८-अंगूठों॥-जाना आना ॥ १०-जोड़ ॥ ११-सम्बन्ध । Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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