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________________ (१०) श्रीमन्त्रराजगुणकल्पमहोदधि। १०६-अब शुक्रका वर्णन किया जाता है-“तानः” तकार सोलहवां ध्यञ्जन है, अतः "त" शब्द सोलह का वाचक है, (अषी और असी, ये दोनों धातु गति और आदान (१) अर्थ में भी हैं. यहां पर चकार से अनकृष्ट (२) दीप्ति (३) अर्थ वाले अस् धातु से विप प्रत्यय करने पर "अस* ऐसा रूप बन जाता है अतः ) “स” शब्द दीप्तियों का नाम है, अर्थात् किरणों का वाचक है, इसलिये "त" अर्थात् सोलह जो "अस्” अर्थात् किरणें हैं, उनका "न" अर्थात् वन्ध अर्थात् योजना (४) जिसके है उसे "तान” कहते हैं, अर्थात् “तान” नाम शुक्रका है, ( सन्धि करने पर तथा दीर्घ करने पर "अन्त्य व्यञ्जनस्य" इस सत्र से सकार का लोप करने पर प्राकृत में रूपकी सिद्धि हो जाती है), व्यञ्जनोंके द्वारा संख्या का कथन करना ग्रन्थों में प्रसिद्ध है, जैसा कि-श्रारम्भसिद्धि में कहा गया है कि "वि यन्मुख १ शला २ शनि ३ केतु ४ उल्का ५ बज ६ कम्प ७ निर्घात ८ ड ५ ज ढ १४ द १८ ध १० फ २२ ब २३ भ २४ संख्यावाले धिष्ण्य में उपग्रह सूर्य के आगे रहते हैं” ॥१॥ इत्यादि, "षोडशाचिदैत्यगुरुः” इस कथन से “तान" नाम षोडश (५) किरणवाले अर्थात शक का है, उस शुक्र का "नम' अर्थात भजन करो, ( धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं अतः यहांपर नम् धात भजन अर्थ में है ), वह शुक्र कैसा है कि "ज अरहम्” ( उन्दैप धातु क्लेदन (६) अर्थ में है ) जो "उनक्ति” अर्थात् रोगों से क्लिन्न (७) होता है उसको "उन्द' कहते हैं, उस ( उन्द) को, “ल” नाम अमृत का कहा गया है, अतः यहां पर "ल" शब्द अमृत वाचक है, उस ( अमत ) को "भवते” अर्थात् प्राप्त कराता है, ( णिक् प्रत्यय का अर्थ अन्त. र्भत (८) है, भड प्राप्तौ धातु का ड प्रत्यय करने पर "उन्दलभः” ऐसा रूप बनता है, रेफ और लकार की एकता होती है, रोगात (ए) को शक अमत का दान करता है, क्योंकि विद्वानों का मत है कि सज्जीवनी विदया शक्र की ही है, अथवा "भ” नाम अलि (१०) और शुक्र का कहा गया है, अतः "म" शब्द शुक्र का वाचक है, "घर" नाम शीघ्रगामी (११) का है. १-ग्रहण ॥ २-खींचा हुआ ॥ ३-प्रकाश ॥४-जोड़ ॥ ५-सोलह ॥ ६-भिगाना, गीला करना ॥ ७-क्लेद युक्त ॥ ८-अन्तर्गत, भीतर रहा हुआ ॥ -रोग से पीड़ित ॥ १०-भौंरा ॥ ११-शीघ्र चलनेवाला ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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