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द्वितीय परिच्छेद ॥
(८) १०४-अब बुध का वर्णन किया जाता है-“म” नाम ब्रह्मा का है, वह “अवति" अर्थात् देवता होने से स्वामी होता है, (विप प्रत्यय के करने पर . "मी" शब्द बन जाता है, अव धातु स्वामी अर्थ में है) इसलिये “मौ” नाम रोहिणी नक्षत्र का है, उस से उत्पन्न होता है, अतः “मोज" नाम बुभका है, क्योंकि बुध का नाम श्यामाङ्ग और रोहिणीसुत कहा गया है, “रिहम्" रै” नाम धन का है, वहीं 'भ” अर्थात् भवन है, अर्थात् धनभवन है, “उस में स्थित" यह वाक्य शेष जानना चाहिये, “तानः" "ता" अर्थात लक्ष्मी को जो लाता है उसे "तान” कहते हैं, इस प्रकार का नहीं है, किन्तु इस प्रकार का ही है, यह काकूक्ति [१] के द्वारा व्याख्यान करना चाहिये क्योंकि ज्योतिर्विद् (२) कहते हैं कि-धन भवन में स्थित बध लक्ष्मी प्रद (३) होता है, (“ऐत् एत् स्वराणां स्वराः” इस सूत्र से रै शब्द को इकार हो जाता है)।
१०५-अब गुरु (४) का वर्णन किया जाता है “ल” नाम अमत का कहाँ गया है, अतः "ल" शब्द से अमृत का ग्रहण होता है, ("अदनम्” इस व्य. त्पत्ति के करने पर "अद" शब्द बनता है ), अद नाम भोजन का है जिनके "अद” अर्थात् भोजन में "ल" अर्थात् अमत है उनको "अदल" कहते हैं, अर्थात् अदल नाम देवों का है, उनको जो "हन्ति” अर्थात् गमन करता है अर्थात् प्राचार्य रूपसे प्राप्त होता है उसको "अदलहन्ता" कहते हैं, इस प्रकार 'अदलहन्ता" शब्द सुराचार्य (५) अर्थात् जीववाचक (६) है, वह कैसा है कि-'मान" है जिससे "श्रा" अर्थात् अच्छे प्रकार से "न" अर्थात् ज्ञान होता है, उसे “प्रान” कहते हैं, अर्थात् वह ज्ञान दाता है, वह किस प्रकार का होकर ज्ञान दाता होता है कि-"नमः” “न” नाम बुद्धि का है, अर्थात् पञ्चम भवन, उसमें ( मदुङ धातु स्तुति मोद मद स्वप्न और गति अर्थ में है ) जो 'मन्दते” अर्थात् गमन करता है उसको "नम" कहते हैं, ( ड प्रत्यय के करने पर "नम” शब्द सिद्ध हो जाता है ) तात्पर्य यह है कि लग्न में पञ्चम भवन में स्थित गुरु ज्ञान दाता होता है ।
१-शोक भय और कामादिसे ध्वनिका जो विकार हैं उसे काकु कहते हैं। २-ज्योतिष को जानने वाले, ज्योतिषी ॥३-लक्ष्मी का देनेवाला ॥ ४-बृहस्पति । ५-बृहस्पति ॥ ६-बृहस्पति ॥
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