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________________ जैन साहित्य संशोधक [खण्ड २ पडिवएणए पडिपालण सूरहो, होउ संति भरहहो गिरिधीरहो। होउ संति बहु गुणगुणवंत, संतहं दयवंतहं भयवंतहं ॥ १५ ॥ होउ संति बहु गुणहि महलहो, सासु जे पुत्तहो सिरि देवलहो । एउं महापुराणु रयणुजले, जे पयडेवउ सयले धरायले ॥ १६ ॥ चउविह दाणुजय कयचित्तहो, भरह परमसम्भाव सुमित्सहो । भोगलहो जयजसविच्छरियहो, होउ संति णिरु णिरुवमचरियहो ॥ १७॥ होउ संति णण्णहो गुणवंतहो, कुलवच्छल सामत्थ महंतहो । णिश्चमेव पालियजिणधम्महं, होउ संति सोहण गुणवम्महं ॥१८॥ होउ संति सुश्रणहो दंगइयहो, होउ संति संतहो संतइयहो । जिणपयपणमण वियलियगव्वहं, होउ संति णीसेसहं भव्यहं ॥ १६ ॥ घत्ता । . इय दिव्यहो कव्वहो तणउं फलु लहुं जिणणाहु-पयच्छउ । सिरि भरहहो अरुहहो जहिं गमणु पुप्फयंतु तहिं गच्छउ ॥ २० ॥ सिद्धिविलासिणि मणहरदूएं, मुद्धाएवी तणुसंभूएं । णिद्धणसधणलोयसमचित्ते, सव्वजीवणिक्कारणमित्ते ॥ २१ ॥ सहसलिल परिवढियसोते, केसवपुत्ते कासवगुत्ते । विमल सरासइ जणियविलासे, सुण्णभवण-देवउलणिवासें ॥ २२ ॥ कलिमल पवल पडल परिचत्ते, णिग्घरेण निप्पत्तकलते। गइवावीतलाय सरण्हाणे, जर चीवरवक्कल परिहाणे ॥ २३ ॥ धीरे धूलीधूसरियंगे, दूरयरुझिय दुजणसंगें। माहि सयणयले करपंगुरणे, माग्गिय पंडियपंडियमरणे ॥२४॥ मएणखेडपुरघरे णिवसंते, मणे अरहंतु देउ झायंते। भरहमएणणिजे यणिलए, कव्वपवंधजणियजणपुलएं ॥२५॥ पुप्फयंतकयणा धुयपंके, जइ अहिमाणमरुणामके। पालन में शूर और पर्वत के समान धीर भरत (मंत्री) को शान्ति प्राप्त हो। गुणवन्त, दयावन्त, ज्ञानवन्त सज्जनों को शान्ति प्राप्त हो ॥ १५॥ उस के ( भरत के ? ) पुत्र अतिशय गुणवन्त श्री देवल्ल को शान्ति मिले जिस ने कि इस महापुराण को रत्नोज्ज्वल धरातल पर फैलाया और जिस का चित्त चारों प्रकार के दान करने में उद्यत रहता है तथा जो भरत के लिए परम सद्भावयुक्त मित्र के तुल्य है । जिस का यश संसार में फैल रहा है और जिस का चरित्र उपमारहित है, उस भोगल्ल को शान्ति प्राप्त हो ॥ १६-१७ ॥ कुलवत्सल, समर्थ, गुणवन्त और महन्त णरण को शान्ति प्राप्त हो । निरन्तर जैन धर्म का पालन करनेवाले सोहण और गुणवर्म को शान्ति मिले ॥१८॥ सुजन दंगाय और सन्त संताय को शान्ति प्राप्त हो। जिनभगवान के चरणों में मस्तक झुकानेवाले और गर्वरहित अन्य सब भव्यजनों को भी शान्ति मिले ॥ १९ ॥ इस दिव्य काव्य की रचना का फल जिननाथ की कृपा से मैं यह चाहता हूं कि श्री भरत और अहंत का गमन जहां हो पुष्पदन्त भी वहीं जावे ॥२०॥ सिद्धिरूपी विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के पुत्र, निर्धनों और सपनों को बराबर समझनेवाले, सर्वजीवों के निष्कारण मित्र, शब्द सलिल से बंढा है काव्य स्रोत जिन का, केशवक पुत्र, काश्यप गोत्रीय, विमल सरस्वती से उत्पन्न विलासोंवाले, शून्य भवन और देव कुलों में रहनेवाले, कलिकाल के मत के प्रबल पटलों से रहित, बिना घरद्वार के, पुत्रकलत्रहीन, नदी, वापिका और सरोवर में स्नान करनेवाले, फटे कपड़े ओर वल्कल पहननेवाले, धूलिधुसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहनेवाले, जमीन पर सोनेवाले, अपने हाथों को ही ओढनेवाले, पाण्डितपण्डितमरण की प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यखेट पुर में निवास करनेवाले, मन में अरहन्त देवका ध्यान करनेवाले, भरतमंत्रीद्वारा सम्मानित, नीति के निलय, अपने काव्यरचनासे लोगों को पुलकित करनेवाले, पापरूप कीचड़ जिन क Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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