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________________ जैन साहित्य संशोधक [खंड उसी प्रकार और धर्मोंसे भी नहीं रहना चाहिए था । परंतु हम देखते हैं कि इसका वर्णाचार और आश्रमाचारकी ज्यवस्था के लिए वैदिक साहित्यकी ओर बहुत अधिक झुकाव है । इस ग्रन्थके विद्यापद्ध, आन्वीक्षिकी और त्रया समुद्देशोंको अच्छी तरह पढ़नेसे पाठक हमारे अभिप्रायको अच्छी तरह समझ जावेगे। जनधर्मके मर्मज्ञ विद्वानोको चाहिए कि वे इस प्रश्नका विचारपूर्वक समाधान करें कि एक जैनाचार्यकी कृतिमें आन्वीक्षिकी और प्रयीको इतनी अधिक प्रधानता क्यों दी गई है। यशास्तिलकके नीचे लिखे पद्योंको भी इस प्रश्नका उत्तर सोचते समय सामने रख लेना चाहिए: द्वौ हि धर्मो गृहस्थान लौकिकः पारलौकिकः। लोकाश्रयो भवेदाद्यः परस्यादागमाश्रयः॥ जातयोऽनादयः सर्वास्तलियापि तथाविधा। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र न क्षतिः॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वणांनामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमाविधिः परम् ॥ यद्भयभ्रान्तिनिमुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा। संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्धे वृथागमः॥ तथा च-- सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥ कहीं श्रीसोमदेवसूरि वर्णाश्रमव्यवस्था और तत्सम्बन्धी वैदिक साहित्यको लौकिक धर्म तो नहीं समझते हैं ! और इसी लिए तो यह नहीं कहते है कि यदि इस विषय में श्रुति (वेद ) और शास्त्रान्तर (स्मृतियाँ ) प्रमाण माने जायें तो हमारी क्या हानि है ? राजनीति भी तो लोकिक शास्त्र ही है। हमको आशा है कि विद्वज्जन इस प्रश्नको ऐसा ही न पड़ा रहने देंगे। मुद्रण-परिचय। - अबसे कोई २५ वर्ष पहले बम्बईकी मेसर्स गोपाल नारायण कम्पनीने इस प्रन्यको एक संक्षिप्त व्याख्याके साथ प्रकाशित किया था और लगभग उसी समय विद्याविलासी बड़ोदानरेशन इसके मराठी और गुजराती अनुवाद प्रकाशित कराये थे । उक्त तीनों संस्करणोंको देखकर-जिन दिनों में स्वाय स्याद्वादवारोधि पं० गोपालदासजीकी अधानतामें जैनमित्रका सम्पादन करता था-मेरी इच्छा इसका हिन्दी अनुवाद करनेका हुई और तदनुसार मैंने इसके कई समुद्देशोका अनुवाद जैनमित्रमें प्रकाशित भी किया; परन्तु इसके आन्वीक्षिकी और त्रयां आदि समुदंशोका जनधर्मके साथ कोई सामजस्य न कर सकनेके कारण मैं अनुवादकार्यको अधूरा ही छोड़ कर इसको संस्कृत टीकाको खोज करने लगा। - तबसे, इतने दिनोंके बाद, यह टीका प्राप्त हुई और अब यह माणकचन्द्रप्रन्यमालाके द्वारा प्रकाशित की जा रही है। खेद है कि इसके मध्यके २५-२६ पत्र गायब हैं और वे खोज करनेपर भी नहीं मिल । इसके सिवाय इसकी कोई दूसरी प्रति भी न मिल सकी और इस कारण इसका संशोधन जैसा चाहिए वैसा न कराया जा सका। दृष्टिदोष और अनवधानतासे भी बहतसी अशद्धियों रह गई हैं। फिर भी हमें आशा है कि इस टीकासे काफी सहायता मिलेगी और इस दृष्टि से इस अपूर्ण और अशुद्धरूपमें भी इसका प्रकाशित करना सार्थक होगा। हस्तलिखित प्रतिका इतिहास । पहले जैनसमाजमें शास्त्रदान करनेकी प्रथा विशेषतासे प्रचलित थी। अनेक धनी मानी गृहस्थ ग्रन्थ लिखा लिखाकर जैनसाधुओं और विद्वानोंकों दान किया करते थे और इस पुण्यकृत्यसे अपने ज्ञानावरणीय कर्मका निवारण करते थे। बहुतोंने तो इस कार्यके लिए लेखनशालायें ही खोल रक्खी थी जिनमें निरन्तर प्रारीन अवाचीन ग्रन्थोंकी प्रतियाँ होती रहती थीं। यही कारण है जो उस समय मुद्रणकला न रहने पर भी प्रन्योंका यथेष्ट प्रचार रहता था और ज्ञानका प्रकाश मन्द नहीं होने पाता था। स्त्रियोंका इस ओर और भी अधिक लक्ष्य था। हमने ऐसे पचासों हस्तलिखित ग्रन्थ देखे हैं जो धर्मप्राणा स्त्रियोंके द्वारा ही दान किये गये हैं। Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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