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________________ सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत । [ ५१ ३-"कुटीरकबहादक -हंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५ इसका कारण आपने यह बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमें और हस्तालाखेत लिपुस्तकमें ये सूत्र नहीं है। परन्तु इस कारणमें कोई तथ्य नहीं दिखलाई देता । क्योंकि १-जब तक दश पाँच हस्तलिखित प्रतियाँ प्रमाणमें पेश न की जासकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मूलपुस्तकमें जो पाठ नहीं है वे मूलकत्ताके नहीं है-ऊपरसे जोड़ दिये गये हैं । इस तरहके होन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं। २-मलकत्ताने पहले वोंके भेद बतलाकर फिर आश्रमोंके भेद बतलाये हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति । फिर ब्रह्मचारियोंके उपकुवाण, नाष्टिक, और ऋतुप्रद ये तान भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं। इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यातयोके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियोंके समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यातयोंके भी भेद बतलाये जाय और वे हा उक्त तान सूत्रोंमें बतलाये गये है । तब यह निश्चय. पूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तानों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलकत्ताने हो उन्हें रचा होगा। जिन प्रतियोमे उक्त सूत्र नहीं है; उनमें उन्हें भूलसे ही छूटे हुए समझना चाहिए । -याद इस कारणसे ये मूलकत्ताक नहीं है कि इनमें बतलाये हुए भंद जैनमतसम्मत नहीं है, तो हमारा प्रश्न है कि उपकुर्वाण, कृतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोके भेद भी किसी जनप्रन्थमें नहीं लिख है, तब उनके सम्बन्धक जितन सूत्र है, उन्हे भी मूलकत्ताक नहीं मानने चाहिए । यदि सूत्रोक मूलकाकृत हानेको यहाँ कसोटी सोनीजा ठहरा देवे, तब ता इस ग्रन्थका आधस भी आधक भाग टीकाकार कृत ठहर जायगा। क्योंकि इसमे सेकड़ो ही सूत्र एस है जिनका जनधमक साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और कोई भी विद्वान उन्ह जनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता। ४--जिसतरह टीकापुस्तकमें अनेक सूत्र अधिक है और जिन्हें सोनाजा टीकाकताको गढन्त समझते हैं, उसी प्रकार मुद्रित और मूलपुस्तकमें भी कुछ सूत्र अधिक है ( जो टीकापुस्तकम नहीं है ), तब उन्हें किसकी गहन्त समझना चाहिए? विद्यावृद्धसमुद्देशके ५९ वे सूत्रके आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तकमें मोज़द है:___ "सांख्य योगा लोकायतं चान्वीक्षिकी । बौद्धाहताः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकान्वं), प्रकृतिषुरुषज्ञा हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरात, तमाभिनाभिभूयंत।". भला इन सूत्रोंको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं था.? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जनोके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जाव ता उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वदविरोधी होनक कारण जैन और बोद्धदर्शनका आन्वीक्षिकास बाहर कर दिया है । और मुद्रित पुस् स्तकमें ता मूलकताक मंगलाचरण तकका अभाव है। वास्तविक बात यह है कि न इसम टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालका | जिस जैसी प्रति मिली है उसने उसीके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है। एक प्रतिसे दूसरा और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतिया होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं।। ___हम समझते हैं कि इन बातोंसे पाठकोका यह भ्रम दूर हो जायगा कि टीकाकारने कुछ सूत्र स्वयं रचकर मूलमें जोड़ दिये हैं। यह केवल सोनोजाके मस्तकको उपज है और निस्सार है । खेद है कि हमें उनको भ्रमपूर्ण टिप्पणियोंके कारण भूमिकाका इतना अधिक स्थान रोकना पड़ा। एक विचारणीय प्रश्न । इस आशासे अधिक बढ़ी हुई भूमिकाको समाप्त करनेके पहले हम अपने पाठकोका ध्यान इस और विशेषरूपसे आकर्षित करना चाहते हैं कि वे इस ग्रन्थका जरा गहराईके साथ अध्ययन करें और देखें कि इसका जैनधर्मके साथ क्या सम्बन्ध है। हमारी समझमें तो इसका जैनधर्मसे बहुत ही कम मेल खाता है। राजनीति यदि धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात् वह किसी विशेष धर्मका पक्ष नहीं करती, तो फिर इसका जिस प्रकार जैनधर्मसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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