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________________ अंक १] सोमदेवमूरिकृत नीतिवाक्यामृत । .. इस शानदान प्रथाको उत्तेजित करनेके लिए उस समयके विद्वान् प्रायः प्रत्येक दान किये हुए प्रन्यके अन्तमें दाताकी प्रशस्ति लिख दिया करते थे जिसमें उसका और उसके कुतुम्बका गुणकर्तिन रहा करता था । हमारे प्राचीन पुस्तक-भंडारोंके प्रन्थों से इस तरहको हजारों प्रशस्तियों संग्रह की जा सकता है जिनसे इतिहास-सम्पादनके कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। मातिवाक्यामृतटीकाकी वह प्रति भी जिसके आधारसे यह प्रन्थ मुद्रित हुआ है इसी प्रकार एक धनी गृहस्थकी धर्मप्राण स्त्रोके द्वारा दान की गई थी। प्रन्यके अन्तमे जो प्रशस्ति दी हुई है, उससे मालूम होता है कि कार्तिक सुदी ५ विक्रमसंवत् १५४१ को, हिसार नगरके चन्द्रप्रभचैत्यालयमें, सुलतान बहलोल (लोदी)के राज्यकालमें, यह प्रति दान की गई थी। नागपुर या नागौरके रहनेवाले खण्डेलवालवंशीय क्षेत्रपालगोत्रीय संघपति कामाको भार्या साध्वी कमलभान हिसार निवासी पं० मेहा या माहाको इसे भक्तिभावपूर्वक भेट किया था। कल्हू नामक मंघपतिको भायांका नाम राणी था। उसके चार पुत्र थे-वा, धारा, कामा और सुरपति । इनमेसें तीसरे पुत्र संघपति कामाको भाया उक्त साध्वी कमली थी जिसने अन्य दान किया था। कमलश्रीसे भीषा औषच्छूक नामके दो पुत्र थे। इनमेंसे भीवाकी भायां भिउंसिरिके मुरुदास नामक पुत्र था जिसकी गुणधी भायांके गर्भसे रणमल्ल और जट्ट नामके दो पुत्र थे । दुसरे बच्छूकका भार्या घडासरिक रावणदास पुत्र था जिसकी स्त्रीका नाम सरस्वती था। पाठक देखें कि यह परिवार कितना बड़ा और कितमा दीर्घजीवी था। कमलीके सामने उसके प्रपैत्र तक मौजूद थे। पण्डित मेहा या माहाका दूसरा नाम पं० मेधावी था। ये वही मेधावी है जिन्होंने धर्मसंग्रहश्रावकाचार मामका प्रन्य बनाया है और जो मुद्रित हो चुका है। पं० माहा अपनी गुरुपरम्पराके विषयमें कहते हैं कि नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छके भधारक पद्यमन्दिके शिष्य भ• शुभचन्द्र और उनके शिष्य भ. जिमचन्द्र मेरे गुरु थे। जिनचन्द्र के दो शिष्य और थे-एक रत्ननन्दि और दूसरे विमलकीति। यह पुस्तकदाताकी प्रशस्ति पं. मेधावांकी ही लिखी हुई मालूम होती है। उन्होंने प्रैलोक्यप्राप्ति, मूलाचारकी धसुनन्दिवृत्ति आदि प्रन्थोंमें और भी कई बड़ी बड़ी प्रशस्तियों लिखी हैं । वसुनन्दि वृत्तिकी प्रशस्ति वि० सं० १५१६ की और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति की १५१९ की लिखी हुई है *। धर्मसंप्रहश्रावकाचार उन्होंने कार्तिक वदी १३० १५४१ को समाप्त किया है । नीतिवाक्यामृतटीकाकी यह प्रशस्ति धर्मसंग्रहके समाप्त होनेके कोई आठ दिन बाद ही लिखी गई है। धर्मसंग्रहमें पं० मेधावीने अपने पिताका नाम उद्धरण, माताका भीषुही और पुत्रका जिनदास लिखा है। वे अग्रवाल जातिके थे और अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान् थे। उन्होंने दक्षिणके पुस्तकगच्छके आचार्य श्रुतमुनिसे अन्य कई विद्वानोंके साथ अष्टसहस्री ( विद्यानन्दस्वामीकृत ) पढी यी । जान पड़ता है कि उस समय हिसारमें जैन विद्वानोंका अच्छा समूह था । भट्टारकोंकी गद्दी भी शायद वहाँ पर थी। यह टीकापुस्तक हिसारसे आमेरके पुस्तक भंडारमें कब और कैसे पहुँची, इसका कोई पता नहीं है । आमेरके भंडारमेसे सं० १९६४ में भट्टारक महेन्द्रकीर्ति द्वारा यह बाहर निकाली गई और उसके बाद जयपुर निवासी पं. इन्द्रका लालजी शास्त्रीके प्रयत्नसे हमको इसकी प्राप्ति हुई। इसके लिए हम भट्टारकजी और शास्त्रीजी दोनोंके कृतज्ञ हैं। इस प्रतिमें १३३ पत्र हैं और प्रत्येक पृष्ठम प्रायः २० पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पत्रकी लम्बाई ११॥ इंच और चौड़ाई ५॥ इंचसे कुछ कम है । ५१ से ७५ तकके पृष्ठ मौजुद नहीं हैं। निवेदकपौषशुक्ला तृतीया १९७९ वि०।। नाथूराम प्रेमी। * देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ । Aho ! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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