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________________ 4. जैन साहित्य संशोधक [खंड २ शिष्यों या परम्पराशिष्यों द्वारा निर्मित किये हुए सार हैं और इस बातको तो सभी जानते हैं कि उपलब्ध मनुस्मृति भृगुप्रणीत हैं-स्वयं मनुप्रणीत नहीं। बम्बईके गुजराती प्रेसके मालिकोने कुल्लूकभट्टकी टीकाके सहित मनुस्मृतिका एक सुन्दर संस्करण प्रकाशित किया है। उसके परिशिष्टमे ३५५ श्लोक ऐसे दिये हैं जो वर्तमान मनुस्मृतिमें तो नहीं मिलते हैं। परन्तु हेमाद्रि, मिताक्षरा, पराशरमाधवीय, स्मृतिरत्नाकर, निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमे मन, वृद्धमनु और बृहन्मनुके नामसे 'उक्तंच' रूपमें उद्धृत किये हैं । इसके सिवाय सैकड़ों श्लोक क्षेपकरूपमें भी दिये हैं, जिनकी कुल्लूक भट्टने भी टीका नहीं की है। हमारे जैनग्रन्थोभे भी मनुके नामसे अनेक श्लोक उद्धृत किये गये हैं जो इस मनुस्मृतिमें नहीं है । उदाहरणार्थ स्वनामधन्य पं० टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशके पाँचवें अधिकारमें मनुस्मृतिके तीन श्लोक दिये हैं, जो वर्तमान मनुस्मृतिमें नहीं हैं। इसी तरह 'द्विजवदनचपेट' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमें भी मनुके नामसे ७ श्लोक उद्धत हैं जिनमेंसे वर्तमान मनुस्मृतिम केवल २ मिलते हैं, शेष ५ नहीं हैं।* शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई हैपाँच छः सौ वर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती । शुक्रका प्राचीन प्रन्थ इससे कोई पृथक् ही था । औरिलीय अर्थशास्त्र लिखा है कि शुक्र मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसमें सब विद्यायें गर्मित है। परन्तु वर्तमान शुकनीतिका का चारो विद्याओंको राजविद्या मानता है-'विद्याश्चतस्र एवेताः' आदि (अ०१ लो.५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है। इन सब बातों पर विचार करनेसे हम टीकाकार पर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढकर मनु आदिके नाम पर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह न उपलब्ध होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले भूलकर्ता श्रीसोमदेवसरिने भी मनुके बीस श्लोक उद्धत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिमें मिलते हैं। अतएव टीकाकारके समयमें भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकर्त्ताने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धृत किया हो और उस ग्रन्थके आधारसे टीकाकारने भी उधृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धत किये हुए मनुस्मृतिक लोकोको, कोई नया लेखक अपने प्रन्थमें भी लिख दे।। ___याज्ञवल्क्यस्मृतिके श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतामे तो बहुत ही संदेह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है। इसके सिवाय शुक्रके नाम तो टीकाकारने दो चार नहीं १७० के लगभग श्लोक उद्धृत किये हैं । तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलक तो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं। उन्होंने तो अपने यशस्तिलक न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन, किया है। सोनीजीका दूसरा आक्षेप यह है कि टीकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र (वाक्य) गढकर मूल शामिल कर दिये हैं। विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लाखे २१, २१ और २५वे सूत्रोंको आप टीकाकर्ताका बतलात हैं: १-"वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः॥" २१ २-बालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्यःप्रक्षल्यकश्चेति वानप्रस्थाः" ॥ २३ ४ देखो मोक्षमार्गप्रकाशका बम्बईका संस्करण, पृष्ठ. २०१। ॐ द्विजवदनचपेट ' संस्कृत ग्रन्थ है, कोल्हापुरके श्रीयुत पं० कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवेने जैनबोधक' में और स्वतंत्र पुस्तकाकार भी, अबसे कोई १२-१४ वर्ष पहले, मराठी टीकासहित प्रकाशित किया था। ४ देखो गुजराती प्रेसकी शुक्रनीतिकी भूमिका । Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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