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________________ अंक १] सोमदेवसूरिकृत नीतिवाक्यामृत [ ë १ - टीकाकारने जो मनु, शुक्र और याज्ञवल्क्यके श्लोक उद्धृत किये हैं, वे मनुस्मृति, शुक्रनीति और याज्ञवल्क्यस्मृतिर्भे, नहीं है । यथा पृष्ठ १६५ की टिप्पणी -" श्लोकोऽयं मनुस्मृतौ तु नास्ति । टीकाकर्त्रा स्वदौष्टयेन प्रन्थकर्तृपराभवाभिप्रायेण बहवः श्लोकाः स्वयं विरचय्य तत्र तत्र स्थलेषु विनिवेशिताः ।' अर्थात् यह श्लोक मनुस्मृतिमें तो नहीं है, टीकाकारने अपनी दुष्टतावश मूलकर्ताको नीचा दिखाने के अभिप्रायसे स्वयं ही बहुतसे श्लोक बनाकर जगह जगह घुसेड़ दिये हैं । २ – इस टीकाकारने -जो कि निश्चयपूर्वक अजैन है- बहुतसे सूत्र अपने मत के अनुसार स्वयं बनाकर जोड़ दिये हैं। यथा पृष्ठ ४९ की टिप्पणी - " अस्य ग्रन्थस्य कर्त्ता कश्चिदजैनविद्वानस्तीति निश्चितं । अतस्तेन स्वमतानुसारेण बहूनि स्त्राणि विरचय्य संयोजितानि । तानि च तत्र तत्र निवेदयिष्यामः । " पहले आक्षेपके सम्बन्धमें हमारा निवेदन है कि सोनीजी वैदिक धर्मके साहित्य और उसके इतिहास से सर्वथा अनभिज्ञ हैं; फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुकके नामके किसी ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली है । खेद है कि उन्हें एक प्राचीन विद्वान के विषय में केवल इतने कारण कि वह जैन नहीं है इतनी बड़ी एकतरफा डिक्री जारी कर देनेमें जरा भी झिझक नहीं हुई ! सोनीजीने सारी टीका मनुके नामके पाँच श्लोकों पर, याज्ञवल्क्यके एक श्लोकपर, और शुकके दो लोकोपर अपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्योंके ग्रन्थोंमें नहीं हैं । सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीति उद्घृत श्लोकों का पता नहीं चलता । परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकार की दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखानेकी प्रवृत्ति नहीं है। सोनीजीको जानना चाहिए कि हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं । अपने निर्माणसमय में वे जिस रूपमें थे, इस समय उस रूपमें नहीं मिलते हैं । उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं और प्राचीन 'प्रन्थों के नष्ट हो जानेसे उनके नामसे दूसरोंने भी उसी नामके ग्रन्थ बना दिये हैं । इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठों से दूसरे स्थानों की प्रतियों के पाठ नहीं मिलते। इस विषय में प्राचीन साहित्यके खोजियोंने बहुत कुछ छानबीन की है और इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है । कौटिलीय अर्थशास्त्रकी भूमिका में उसके सुप्रसिद्ध सम्पादक पं. आर. शामशास्त्री लिखते हैं: " अतश्च चाणक्यकालिकं धर्मशास्त्रमधुनातनाद्याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्रादन्यदेवासीदिति प्रतिभाति । एवमेव ये पुनर्मा नव-बार्हस्पत्यौशनसा भिन्नाभिप्रायास्तत्र तत्र कौटिल्येन परामृष्टाः न तेऽअधुनोपलभ्यमानेषु ततद्धर्मशास्त्रेषु दृश्यन्त इति कौटिल्यपरामृष्टानि तानि शास्त्राण्यन्यान्येवेति बाढ सुवचम् । अर्थात् इससे मालूम होता है कि चाणक्य के समयका याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य शास्त्र ( स्मृति ) से कोई जुदा ही था । इसी तरह कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्रमें जगह जगह बार्हस्पत्य, औशनस आदिसे जो अपने भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अभिप्राय इस समय मिलनेवाले उन धर्मशास्त्रों में नहीं दिखलाई देते । अतएव यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि कौटिल्यने जिन शास्त्रोंका उल्लेख किया है, वे इनके सिवाय दूसरे ही थे । स्वर्गीय बाबू रमेशचन्द्र दत्तने अपने ' प्राचीन सभ्यताके इतिहास' में लिखा है कि प्राचीन धर्मसूत्रों को सुधार कर उत्तरकालमें स्मृतियाँ बनाई गई हैं— जैसे कि मनु और याज्ञवल्क्यकी स्मृतियाँ। जो धर्मसूत्र खोये गये हैं उनमें एक मनुका सूत्र भी है जिससे कि पीछे के समय में मनुस्मृति बनाई गई है । ऽ ܕܕ याज्ञवल्क्य स्मृतिके सुप्रसिद्ध टीकाकार विज्ञानेश्वर लिखते हैं:- -" याज्ञवल्क्यशिष्यः कश्चन प्रश्नोत्तररूपं याज्ञवल्क्यप्रणीतं धर्मशास्त्रं संक्षिप्य कथयामास, यथा मनुप्रोक्तं भृगुः ।' अर्थात् याज्ञवल्क्य के किसी शिष्यने याज्ञवल्क्यप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके कहा -जिस तरह कि भृगुने मनुप्रणीत धर्मशास्त्रको संक्षिप्त करके मनुस्मृति लिखी है। इससे मालूम होता है कि उक्त दोनों स्मृतियाँ, मनु और याज्ञवल्क्यके प्राचीन शास्त्रोंके उनके S रमेशबाबूने अपने इतिहास के चौथे भाग में इस समय मिलनेवाली पृथक् पृथक् बीसों स्मृतियों पर अपने विचार प्रकट किये हैं और उसमें बतलाया है कि अधिकांश स्मृतियाँ बहुत पीछे की बनी हुई हैं और बहुतों - जो प्राचीन भी हैं- बहुत पीछे तक नई नई बातें शामिल की जाती रही हैं। 10 Aho! Shrutgyanam
SR No.009879
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1923
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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