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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ और 'कर्मवादी' कहा जाता है। ऐसा ही ज्ञानी इसके विपरीत जो मनुष्य, समाज और राष्ट्र सदाचारी-अर्थात् सम्यक चारित्रका पालन करने 'सज्ञा' याने चैतन्यवाला है और जो अपनी वाला होता है। सम्यग्दर्शनी और सम्यगज्ञानीका पूर्वापर दशाका विचार करता रहता है-भूत, जो आचरण वही सम्यक् चारित्र है। ऐसे ही सम्यक् भविष्य और वर्तमान अवस्थाको सोचे करता है-चह चारित्री को क्रियावादी कहते हैं। आत्मदर्शी ( आत्मवादी) कहलाता है। ऐसे आत्मदर्शी एवं सम्यग दर्शन, ज्ञान और चारित्रवान् अथवा मनुष्य आदिको जगत्की परिस्थितिका ठीक ठीक आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी, और क्रियावादो ज्ञान मिलता रहता है और कर्तव्यकर्मका भी उसे पूरा आत्मा ही इस जन्ममरणरूप तांतोंसे बनी हुई हाल मालम होता रहता है। निर्ग्रन्थ प्रभु उसको जगजंजाल स्वरूप जालसे छुटकारा पाकर मुक्त लोकवादी और कर्मवादी कहते हैं । इस प्रकारके विचाबन सकता है। वही आत्मा अजर, अमर, और अचल रवान् और ज्ञानवान् मनुष्य आदि अपनी उन्नतिके स्वरूपको प्राप्त कर सकता है-सच्चिदानन्द-पूर्ण बन लिये क्रियाशील बनता है। क्रियाशील मनुष्य ही सकता है। इच्छित सुख प्राप्त कर सकता है और दुःखोंसे मुक्त हो सकता है इसीलिये जैनधर्मका यह मुद्रालेख है किजिस तरह निर्ग्रन्थ मुनीश्वरका यह प्रवचन परमार्थ-पारलौकिक रहस्यका उद्बोधक है, वैसे व्या ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः। वहारेक-इहलोक रहस्यका भी उद्बोधक है। इस " ज्ञान और क्रिया ( चारित्र-आचरण ) अर्थात् प्रवचन में कही गई बातें जैसे आत्माके आंतर स्वरूपका ज्ञानयोग और कर्मयोग इन दोनोके संयुक्त सामर्थ्य से विकास-क्रम प्रकट करती हैं, वैसे इस जगतके मोक्ष मिलता है। मनुष्य, समाज और देशकी व्यावहारिक दशाका भी विकास-क्रमं बतलाती हैं। भगवान् महावीर देवके प्रवचनका यह व्यावहाजो कोई मनुष्य, समाज और राष्ट्र ‘सज्ञा' (चे रिक रहस्य जगत्के प्रत्येक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तन्य) हीन हो कर अपने गतागत याने भूत-भवि- और धर्मके लिये विचारणीय है। जैनधर्मका तो ध्यतका विचार नहीं करता, वह यह नहीं जान यह स्वकीय आविष्कृत सिद्धान्त है, इसलिये उस सकता कि मेरा भूतकाल कैसा था, वतमार्नमें क्या के अनुयायी व्याक्ति और समाजको तो आवश्य ही हालत है और भविष्यमें कैसी दशा होगी। उसे इसकी विचारणा करनी चाहिए। जैन तत्वज्ञानके यह नहीं मालूम हो सकता कि, वह किस दशामेंसे कथनानुसार कालका स्वरूप पदार्थमात्रके स्वरूप समुत्थित हुआ है, किस दशामें विद्यमान है और में परिवर्तन करनेका है। प्रत्येक वस्तुमें, कालके किस दशामें जा कर लीन होगा। इस प्रकारका प्रभावसे प्रतिक्षण रूपान्तर होता रहता है। इस 'सज्ञा'-शून्य मनुष्य, समाज और राष्ट्र भग- नियमानुसार, व्यावहारिक दृष्टिसे विचार किया जाय वान्के मतसे अनात्मवादी है-अपनी हालतको तो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और धर्मके स्वरूपमें भी न जानने वाला अज्ञान है। ऐसे अज्ञान मनुष्य, सदैव परिवर्तन-रूपान्तर हुआ ही करता है । जैनसमाज या राष्ट्रको जगत् (लोक) की स्थिातका धर्म और जैन समाज भी इसी सनातन नियमके कुछ भी ज्ञान नहीं हो सकता और उसे कर्तव्या- स्वाधीन है। रूपान्तर या परिवर्तन जो होता रहता है कर्तव्य ( कर्म ) का भी कुछ भान नहीं होता। इस वह अच्छा ही होता रहता है या बुरा ही होता रहता तरह वह मनुष्य आदि फिर अन्तमें क्रियाशून्य है; ऐसा कोई विशिष्ट नियम इस जगत्में नहीं देखा -उद्यमहीन हो जाता है। वह अक्रियावादी बन जाता जाता। कभी अच्छेका रूपान्तर बुरेके रूप में होता है। कर्तव्यशून्य मनुष्य कभी उन्नति नहीं प्राप्त कर है; कभी बुरे का भले के रूप में। कभी तदवस्थ याने सकता। उसकी क्रमशः अवनति ही होती जाती जैसा का वैसा ही होता है। परीवर्तनके अच्छेहै; और अन्त में नष्ट दशाको प्राप्त होता है। बुरेका आधार देश, काल, मनुष्योंका आचार, Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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