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________________ उद्बोधन। यवहार, इत्यादि अनेक कारणोंके ऊपर निर्भर है। जैन इतिहासके अन्वेषणके लिये मुख्य क्षेत्र दो जो व्याक्त आदि 'सज्ञी ' याने विचारवान् है वह तो हैं- एक साहित्य और दूसरा स्थापत्या जैन साहित्य इस देश-काल-कृत परिवर्तनकी दशाओंका निरं- प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कानडी, तामिल, तेलुगु, तर विचार किया करता है और समयानुसार उचित गुजराली, हिन्दी आदि जैसी भारतकी प्राचीन-अर्वाप्रवत्ति कर उन्नत होनेकी-प्रगति करनेकी-चेष्टा -चीन सबही प्रधान प्रधान भाषाओं में व्याप्त है। करता रहता है। इतिहास-शास्त्रका आविष्कार और इसी तरह जैम स्थापत्य भी पंजाब, बंगाल, उडीसा अध्ययन-अध्यापन इसी लक्ष्यको लेकर, प्रवर्तित मद्रास, हैदराबाद चिन्हाड, कर्नाटका मध्यभारत, हुआ है । इस शास्त्रके द्वारा जगतुके धर्म, समाज युक्ता भात, मेवाड,मारवाडा मालका, गुजसत, सिंध, और राष्ट्रोंका भूतकालीन स्वरूप ज्ञात हो सकता किच्छ इत्यादि भारत के सब देशों और प्रदेश में है आरै उसस वर्तमानिक दशाकी तुलना कर भवि- उपलब्ध है। इस प्रकार भारतवर्षीय बहभाषायद् दशाका अनुमान किया जा सकता है। इति-व्यापी जैन साहित्य और बहु प्रदेश व्यापी जैन हासके अध्ययनसे प्रत्येक समाज, 'धर्म' और 'राष्ट्र स्थापत्वको देखते हुए, इस बातका सहज अनुमान अपनी उन्नति-अवनतिका विचार कर सकता है हो सकता है कि भूतकालमें जैन धर्मका भारत वर्ष और उसके कार्य-कारण-भावको जान सकता है। में कितना प्रभाव रहा होमा। और उसका इतिहास इसालये जगत्का प्रत्येक सभ्य और शिक्षित 'जन- कितना सचल होगा । यह हर्षकी बात है कि भारत समूह अपने अपने इतिहासके अन्वेषण और अर्थ- - सरकारके पुरातत्त्व-विभागके द्वारा ब्राह्मणं और बौद्ध यनमें विशेष रूप से प्रवर्तित है। भारतवर्ष में भी स्थापत्य के साथ सार्थ जैन स्थापत्यका भी अन्वेषणअब इस विषयकी ओर शिक्षित मनुष्योंका लक्ष्य संरक्षणादि होता रहता है और उक्त विभागके खींचा जा रहा है और दिन-प्रतिदिन इस विषयकी विवरणात्मक-पुस्तकों ( रिपोर्टी) में तत्संबंधी ऐतिगवेषणा करनेवाले विद्वान संख्यामें बढ़ते जाते हैं। हाँसिक पर्यालोचन भी यथा समयं प्रकट होता - आज तक जो कुछ भारतवर्षके । भूतकालंके रहता है। इस प्रकार कितने एक अंशमें। जैन स्थापविषयमें लिखा हुआ है वह पश्चिमीय विद्वानोहीके त्यके उद्वारका सो उद्घाटन हो रहा है। परन्तु, जैन परिश्रमका फल है। इन विदेशी लेखकाका एकतो : साहित्य के बारेमें अभीतक कोई ऐसी महत्वयाली ध्येय ही जुदा था और दूसरी बात यह है कि उन्हा प्रवृत्तिका प्रारंभ कहनिहीं हुआ है | kR ने प्राचीन भारतका अवलोकन, वर्तमान-भारतकी ? उनीसंधी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कितने एक विद्याअवनत-दशाको आदर्श मानकर किया। इसालये विलासी और निष्पक्ष-अभ्यासी जर्मन विद्वानों ने उनके लेखोंमें और विचारों में सत्यकी अपेक्षा : जैन साहित्यका कितनाक संशोधन-प-लोचन किया संकुचितता अधिक है। सिवाया उन्होंने भारतके ; थी, और उसके कारण जैन धमके विषयमें जो इतिहासका आरंभ वहींसे माना है. जहांस उस . किनीमान्तियां.कपाश्चात्य और उनके अध के पतनकी शुरूआत हुई है। वास्तविकमें आर्या-भक्त एतद्देशीय विद्वानोंके बीच में फैली हुई थीं, वे कई वर्तकी उन्नत अवस्था का इतिहास अभी तक अध- अंशों में निकल गई। परंतु, जैन समाजकी अज्ञानंताऔर कार ही में विलुप्त है। इसके उद्धारके प्रयत्न । अब - अकर्मण्यताके कारण न तो उन विद्वानोंकों कछ अपने कहीं कहीं होने लगे हैं। कार्यमें उत्तेजक आश्वासन ही मिला और न प्राचीन - जैन धर्म भारतवर्षका एक प्रधान- धर्म है, इसका और प्रतिष्ठित पुस्तकादि साधन ही मिले। इस लिये लिये समुच्चय. भारतके, इतिहासमें इसका भी बहुत बड़ा हिस्सा है। अतः इसके स्वतंत्र इतिहास : " जैन साहित्यके विषयमें अभीतक विद्वानोंक न कोई के अन्वेषणकी भी उतनी ही आवश्यकता है, जि- भी महत्त्व-दर्शक विचार ही प्रकट हुए हैं और 'तनी वैदिक और बौद्ध धर्मके इतिहासकी है। जैन न कोई जैन साहित्यके जिज्ञासु ही दिखाई देते हैं। 'धर्मके इतिहासान्वेषणके विना भारतका इतिहास सेंकडों ही विद्वानोंको तो अभीतके जैन साहित्य किबहत अंशमें अपर्ण ही रहेगा। .......... तना और कैसा है इसकी कल्पना मात्र भी नहीं है। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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