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________________ अंक १] उद्बोधन । परमार्थ- द्रव्य और भाव-दोनों भावसि उपलक्षित है। व्यवहारसे, जैसे कोई ' संज्ञा ' याने चैतन्य हीनमूढात्मा यह नहीं जान सकता कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, ये सब दिखाई देनेवाले लोग कौन हैं; मेरा क्या कर्तव्य-कर्म है और मैं क्या कर रहा हूं; इत्यादि । इस प्रकारके विचार- विहीन आत्माका कोई अभ्युदय नहीं हो सकता; वह अपने जीवनको प्रगतिमान् नहीं बना सकता। ऐसा मनुष्य, मनुष्य स्वरूप हो कर भी पशु ही की कोटिमें गिना जाता है । पशुके जीवन में और ऐसे ' संज्ञा ' हीन मनुष्य के जीवन में कोई अंतर नहीं होता। ऐसा प्राणी अनात्मज्ञ, लोकस्वरूगनभिज्ञ, कर्तव्य विचार विहीन और प्रवृत्ति - शून्य कहा जाता है। वैसे ही परमार्थ भावसे, जो आत्मा अध्यात्मभाव पराडमुख और ऐहिक विषय आसक्त है वह भी वास्तविक में संज्ञा' याने 'सम्यग्ज्ञान' हीन ही है। ऐसा परमार्थ-ज्ञान शून्य आत्मा भी ( वह फिर चाहे व्यवहार से कितना ही बुद्धिमान्, प्रयत्नशील, प्रपञ्चपटु और सतत उद्योगी हो ) यह नहीं विचार सकता कि, यथार्थ में मैं कौन हूं, मेरे आत्माका क्या स्वरूप है, मैं किस लोक मेंसे यहां पर आया हूं, मेरा पुनर्जन्म होता है या नहीं, मैं इस जन्मसे मर कर कहां जाऊंगा, इत्यादि । इस प्रकार के विचार-शून्य आत्मा का भी उद्धार नहीं हो सकता । उसको मोक्षमार्गकी - प्राप्ति नहीं हो सकती । वह अंध पुरुषकी तरह अज्ञात मार्ग में इधर उधर भटकता फिरता है-संसार परिभ्रमण करता रहता है । उसको इच्छित स्थानकी प्राप्ति नहीं हो सकती और सिद्ध-स्वरूप नहीं बन सकता । जो आत्मा अध्यात्मस्वरूपका जिज्ञासु है, अपने आंतरिक गमनागमनका विचार करता रहता है, Here arrest समझने के लिये प्रयत्न करता रहता है, वही आपना उद्धार कर सकता है । वैसे जिज्ञासु अतएव विचारवान् मनुष्यको सत्यमार्ग मिल सकता है और उसके द्वारा वह इच्छित स्थानको प्राप्त कर सकता है। वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो कर सिद्ध-बुद्ध वन सकता है । निर्मय तीर्थकर ऐसे आत्मिक विचार करनेवाले पुरुष ही को 'आत्मवादी - आत्मज्ञ कहते हैं। उनके मतसे, जो आत्मा 'आत्मवादी' याने अपने स्वरूपको जान सकता है वही 'लोकवादी' अर्थात् जगत्के सत्य स्वरूपको जाननेवाला होता है । क्यौं कि जो अपने आंतर स्वरूपको नहीं जान सकता वह वाह्य स्वरूपको भी नहीं जान सकता। यह आंतर-बाह्य ज्ञान परस्पर सापेक्ष है । इसीलिये भगवान् ने आगे चलकर यह कहा है कि जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ, जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । आचा ङ्गसूत्र १-७1 जो इसप्रकार लोकवादी होता है वही 'कर्मवादी' अर्थात् कर्मकी विचित्र शक्तियोंका — जगत् के कार्य कारण भावका - ज्ञाता हो सकता है, और इसी तरह कर्मवादी बनने पर फिर वह 'क्रियावादी' अर्थात सम्यक् और असम्यक् प्रवृत्ति ( कर्तव्याकर्तव्य ) का स्वरूप और रहस्य समझनेवाला बन सकता है । क्रियावादी आत्मा आत्म- हितकर प्रवृत्तिका आच रण कर अंतमें कर्मसे मुक्त हो कर अमरत्व प्राप्त कर सकता है। प्रभु महावीर उपदिष्ट मोक्षमार्गका यही यथार्थ क्रम है। मोक्षशास्त्र के प्रणेता महर्षिने जो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । इस प्रकार मोक्षमार्ग बतलाया है वह भी इसी क्रमको लक्ष्य कर है । आत्मतस्वका साक्षात्कार होना - अपने स्वरूप की प्रतीति होना - सम्यग्दर्शन है। इसीका नाम आत्मश्रद्धा भी है। जिसको ऐसा साक्षात्कार - ऐसी प्रतीतिआत्मश्रद्धा होती है वही आत्मवादी कहलाता है । सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्माहीको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हॉ सकती है। जिसको यह दिव्य दर्शन हो जाता है, जो अपनी आत्मश्रद्धामें लीन हो जाता है, उसको फिर सर्व चराचर जगत्का ज्ञान हो जाता है इसीलिये यह कहा जाता है कि , श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् । दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने एक ( आत्मा ) को जान लिया उसने सब ( जगत् ) को जान लिया जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । इस प्रकारका सम्यग्ज्ञानवान् ही 'लोकवादी - Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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