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________________ जैन साहित्य संशोधक। [भाग १ नियन्ध प्रवचन । सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं- इहमेगोर्स णो सण्णा भवइ, तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमसि। दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमांस, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उढाओ वा दिसाओ आगओ अहमसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अणदिसाओ वा आगओ अहमंसि। एवमेगोर्सि णो णायं भवइ । 'अस्थि मे आया उववाइए, णत्थि मे आया उववाइए, के अहं आसी, के वा इओ त्रुओ इह पेच्चा भविस्सामि।' __ से जं पुण जाणेज्जा सह सम्मइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं अंतिए वा सोच्चा; तं जहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। एवमेगेसिं णायं भवइ, अस्थि मे आया उववाइए। जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो अणुसंचरइ सोहं। से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी। .. [ श्रमण भगवान् श्रीमहावीर देवके शासनके मुख्य प्रवर्तक पंचम गणधर आर्य सुधर्मस्वामीने अपने प्रधान शिष्य आर्य जम्बू अनगारसे कहा कि-] हे आयुष्मन् मैंने [ज्ञातसुत्र निग्रन्थ भगवान महावीर देवके मुखसे सुना है। भगवान्ने इस प्रकार कहा है कि "इस जगत में किसी एक जीवात्माको यह ज्ञान नहीं होता है कि मैं कौन सी दिशामसे यहां पर आया है। अर्थात-] जैसे कि, पूर्व दिशामेंसे आया हूं, या दक्षिण दिशामेंसे आया है। पश्चिम दिशामसे आया ई. या उत्तर दिशामसे आया हूँ; ऊर्द्ध दिशामेंसे आया हूँ. या अधो दिशामेंसे आया हूं: [वैसे ही । अन्य किसी दिशा या विदिशामसे आया हूं। [इसी तरह किसी एकको यह भी नहीं ज्ञात होता कि मेरा आत्मा युनर्जन्मवाला है अथवा नहीं है?। मैं कौन है ?। यहांसे मरकर मैं परजन्ममें कौन होऊंगा ?।" __“जो पुनः [ कोई एक जीवात्मा ] अपनी सन्मतिसे या दूसरेके कथनसे, अथवा किस अन्य-तीसरेके पासमे : यह जान लेता है कि, मैं अनुक दिशामसे आया हूं: अर्थात । जैसे कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ: यावत् अन्य दिशा-विदिशामेंसे आया हूँ। [ वैसे ही यह भी जान ले कि- मेरा आत्मा पुनर्जन्मवाला है। जो इन दिशा-विदिशाओम से आता जाता है [अर्थात् ऊपर बतलाई हुई ] सर्व दिशा-विदिशाओं से आता जाता है वही मैं हूँ।[भगवान् कहते हैं -ऐसा जो ज्ञाता है ] वह आत्मवादी (आत्माको समझने वाला), लोकवादी (जगतको जानने वाला), कर्मवादी ( कर्मके रहस्यको माननेवाला), और क्रियावादी (कर्तव्यको करनेवाला) कहलाता है।" श्रमण भगवान् श्री महावीर तीर्थकर प्ररूपित है। ज्ञातपुत्र निर्ग्रन्थ प्रभु महावीर देवका प्रत्येक 'निर्गन्थ प्रवचन' का जो आदिम उद्गार, इस विचार 'द्रव्य' और 'भाव' दोनों नयोंकी उद्बोधन' के अग्रभागमें हमने उद्धृत किया है वह अपेक्षासे युक्त हो कर प्रवर्तित है। उस अनजैसे बाह्य दृष्टिसे इस प्रस्तुत प्रयत्नमें-पत्रके प्रका- कान्तवादी अर्हनका प्रत्यक उद्गार व्यावहारिक और शनमें-प्रारंभिक मंगलाचरण स्वरूप है; वैसेही आंतर पारमार्थिक दोनों दृष्टियोंको साथ लेकर व्यवहत डाष्टिसे, प्रयत्नगत मुख्य ध्येयकाभी पूर्ण उद्बोधक हुआ है। इसलिये ऊपयुद्धत उद्गार भी व्यवहार और Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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