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________________ जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी आगे हम उपलब्ध टीका ग्रन्थोंका परिचय दे हैं । हमारा अनुमान है कि चन्द्रप्रभकाव्यके कर्ता महाकषि वीरनन्दिने जिन अभयनन्दिको अपमा १-महावृत्ति । इसकी एक प्रति पूनेके भा- गुरु बतलाया है, ये वे ही अभयनन्दि होंगे । आचापडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट में मौजूद है । इसकी ये नोमिचन्द्रन भी गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी ४३६ वीं श्लोकसंख्या १६००० के लगभग है । इसके प्रारं- गाथाम इनका उल्लण्य किया है । अतएव इनका भके ३९४ पत्र एक लेखकक लिने हुए और समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके पूर्वार्धके शेष : पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १९३३ को किसी लगभग निश्चित होता है । जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीका. टसोनिया तिजोरी ओम यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है। भाग जयपुरके लिखे हुए मालम होते हैं। कई प्रा० एम० के० बलवलकरने अभयनन्दिका समय स्थानों में कुछ पंक्तियाँ एटी हुई हैं। इसका प्रारंभ ३० सन् १३००-१३५० के लगभग मालम नहीं इसतरह हुआ है: किन प्रमाणोंसे निश्चित किया है ओं नमः । श्रीमत्सर्वज्ञवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः। २-पंचवस्तु । भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें देदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्त्वाभयप्रदम् । इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एके ३००-४०० शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिविरस्यते॥१॥ वर्ष पहलेकी लिखी हुई है और बहुत दुख है। यच्छमलक्षणमसुत्रजपारमन्यै पत्रसंख्या ९१ है । इस पर लेखकका नाम और व्यक्तमुक्तमभिधानविधी दािदैः। प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है । इसके अन्तमें तत्सर्वलोकयप्रियचारवाक्यै केवल इतना लिखा हुआ है.-- यक्तीकरोत्यभयनन्दमुनिः समस्तम् ॥ २ ॥ रुतिरियं देवनंद्याचार्यस्य परवादिमथनस्य ॥छा ॥ मिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंग.. शुभं भवतु लेखकपाउकयोः ॥ श्रीसंघस्य ।।" लमिदमाहाचार्यः। दूसरी प्रति रत्नकरण्डश्रावकाचारवचनिका और अन्त में कोई प्रशस्ति आदि न देकर सिर्फ आदि अनेक भाषाग्रन्थोके रचयिता सुप्रसिद्ध प. इतना ही लिखा है ण्डित सदासुखजीके हाथकी लिखी हुई है और " इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्ती संवत् १९१० की लिखी हुई हैं । इसके अन्तम प्रतिपंचमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्चायं पंच- लेखकने आपना परिचय इसतरह दिया है:मोऽध्यायः ।" अब्दे नभश्चन्द्रनिधिस्थिरके शुद्धे सहय॑म(?) युक्चतुाम् । इससे मालूम होता है कि इस महावृत्तिके कर्ता सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृत्तीरदनात्समाप्ता (?) ।। अभयनन्दि मुनि हैं। उन्होंन न तो अपनी गुरुपर• श्रीमन्नराणामधिपेशराज्ञ श्रीरामसिंहे विलसत्यलेखि। म्पराका ही परिचय दिया है और न अन्यरचना- श्रीमद्बुधेनेह सदासुखेन श्रीयुक्तेलालनिजात्मबुद्धर्थे । का समय ही दिया है, इससे निश्चयपूर्वक यह नहीं शाब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः । कहा जा सकता कि ये कब हुए है। परन्तु उन्होंने किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृधोगसंधावपलापवद्भिः॥ सूत्र ३-२-५५ की टीका एक जगह उदाहरण दिया यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है। है.---" तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते । " इससे मालूम यह टीका प्रक्रियाबद्ध टीका है और बड़े अच्छे होता है कि भट्टाकलंकदेवसे याद अर्थात् वि० * वीरनन्दि और अभयनन्दिका समय जाननेके लिए की नौवीं शताब्दिके बाद-और पंचवस्तुके पूर्वो देखो त्रिलोकसार प्रन्थकी मेरी लिखी भूमिका। लिखित श्लोकमे इसी वृत्तिका उल्लख जान पड़ता ,नं० १.५९ सन १८८७-९१ की रिपोर्ट । २ नं. है, इस लिए आर्य श्रुतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी , ५९. सन १८७५-७६ की रिपोर्ट। ३ इस प्रन्थकी एक वारहवीं शताब्दिके पहले-किसी समयमे वे हुए प्रति परताबगढ (माकवा ) के पुराने दि. जैनमन्दिरके भं नं. ५९. A और B सन १८७५-७६ की रिपोर्ट। डारमें भी है। देखो जैनमित्र ता.२६ अगस्त १९१५ । Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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