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________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग , ढंगसे लिखी गई है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० अधूरी प्रति परताबगढ़ (मालवा ) के पुराने दि० के लगभग है। प्रारंभके विद्यार्थियोंके लिए बड़ी जैनमन्दिरमें है । उसमें इस तरह प्रारंभ किया उपयोगी है । इसका प्रारंभ इसप्रकार किया है- गया है--- ऑनमः श्रीशान्तिनाथाय । महावृत्ति शुभत्सकलबुधज्यों सुखकरी, जगतात्रतयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने । विलोक्योउद्ज्ञानमभुविभयनन्दीप्रवहिताम्। नयप्रमाणवानीश्मध्वस्तध्वान्ताय शान्तये ॥ १॥ अनेकैः सच्छन्दै र्धमीवगतकैः संदृढभूता (!) प्रत्याहारस्यादाविष्टदेवास्तुतिवचनं मंगलार्थमुपासम् । प्रकुर्वेऽहं तनुमतिमहाचन्द्रविबुधः (?)॥ आगे चलकर पांचवें पत्रमें इस प्रकार लिखा है- इससे मालूम होता है कि यह अभयनन्दी वृत्तिके पाम-वैर-वर्ण-कर-चरणादीनां संघीना बहना संभवस्वात् आधारसे लिखी गई है। पण्डित महाचन्द्रजी विसंशयानः शिष्यः संपृच्छति स्म-कस्सन्धिारति । क्रमकी इसी बीसवीं शताब्दिके प्रधकर्ता हैं। संज्ञास्वरप्रकृतिहल्जविसर्गजन्मा । इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और भाषामें कई प्रस्थ संधिस्तु पंचक इतात्यमिहाहुरन्ये । लिखे हैं। तत्र स्वरप्रतिहल्जविकल्पतोऽस्मि ४-जैनेन्द्रप्रक्रिया । इसे न्यायार्थ न्यायशास्त्री संधि त्रिधा कधति श्रुतकार्तिरायः॥ पं० बंशीधरजीने अभी हाल ही लिखी है। इसका इस ग्रन्थके आदि-अन्तम कहीं भी इसके कर्ताका अभी केवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है। नाम नहीं है। केवल इसी जगह यह नाम आया है और इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके रचयि शब्दार्णवकी टीकायें। ता आर्य श्रुतकीर्ति हैं। जैनेन्द्र सूत्रपाठके संशोधित परिवर्धित संस्करकनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थके णका नाम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका है-- कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बत- शब्दार्णव है । इसके कर्ता आचार्य गुणनन्दि हैं। लाया है-" इति परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुतप्रव- यह बहुत संभव है कि सूत्रपाठके सिवाय उन्होंने चनसरित्सरिनाथ-श्रुतकीर्तिविद्यचक्रवर्तिपदेप- उसकी कोई टीका या वृत्ति भी बनाई होगी जो कि प्रनिधानदीपवर्तिश्रीमदग्गलदेवविरचिते चन्द्रप्रभ-- अभीतक उपलब्ध नहीं हुई है। चरित-" इत्यादि । और यह चरित शक संवत् गुणनन्दि नामके कई आचार्य हो गये हैं । उन१०११ (वि० सं० १९४६ ) में बनकर समाप्त हुआ मेंसे एक शक संवत् ३८८ (वि. सं० ५२३ ) में है । अतएव पंचवस्तुको भी अभयनन्दि महावृत्ति- पूज्यपादसे भी पहलेके हैं। दूसरे गुणनन्दि का के कुछ ही पीछे की-विक्रमकी बारहवीं शताब्दि उल्लेख श्रवणबेलगोलके ४२, ४३ औरै ५७ वे नम्बके प्रारंभ की-रचना समझना चाहिये । नन्दिसंघ- रके शिलालेखों में मिलता है। ये बलाकपिच्छके की गुर्वावलीम श्रुतकीर्तिको वैयाकरण भास्कर शिष्य और गृध्रपिच्छके प्रशिष्य थे। तर्क, व्याकरलिना है:-- ण और साहित्य शास्त्रके बहुत बड़े विद्वान थे। " त्रैविद्यः श्रुतकीाख्यो वैयाकरणभास्करः।" इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें ये नन्दिसंघ, देशीयगण और पुस्तकगच्छके आ- ७२ शिष्य सिद्धान्तशास्त्री थे। आदि पंपके गुरु चार्य थे। श्रुतकीर्ति नामके और भी कई आचार्य देवेन्द्र भी इन्हीं के शिष्य थे । अनेक प्रस्थकारोने हो गये हैं। इन्हें कई कार्योका कर्ता बतलाया है; परन्तु अभी. ३---लघुजैनेन्द्र । इसकी एक प्रति अकलवर देखो जैनमित्र ता. २६ अगस्त १९१५ । (भरोच) के दिगम्बर जैनमन्दिरमें है और दूसरी मर्कराका ताम्रपत्र, इंडियन एण्टक्वेरी, जिल्द १, पृष्ठ देखो प्रे पिटसनकी दूसरी रिपोर्ट सन १८८४, ३६३-६५ । तथा एपिग्राफिका कोटिका---जिल्द १, का पहला लेख। Aho ! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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