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________________ ७२ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ कावाला पाठ असली सूत्रपाठको संशोधित और इसमें जैनेन्द्र शब्दागम या जैनेन्द्र व्याकरणको परिवर्धित करके बनाया गया है और उसका यह महलकी उपमा दी गई है । वह मूलसूत्ररूप स्तम्भोंसंस्करण संभवतः गुणनन्दि आचार्यकृत है। पर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी रत्नमय __ अब एक प्रश्न यह रह जाता है कि जब गुणनान्द भूमि है, वृत्तिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप मे मूल ग्रंथमे इतना परिवर्तन और संशोधन शय्यालल है, और टीकारूप उसके माल या मं. किया था, तब उस परिवर्तित ग्रन्थका नाम जैनेन्द्र जिल है । यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी ही क्यों रख्खा? इसके उत्तरमे निवेदन है कि एक है। इसके द्वारा उक्त महल पर आरोहण किया तो शब्दार्णवचन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रियाके पूर्वो- जासकता है । इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके लिखित श्लोकोंसे गुणनन्दिके व्याकरणका नाम कर्ताके समयमें इस व्याकरणपर १ न्यास, २ वृत्ति, 'जैनेन्द्र 'नहीं किन्तु 'शब्दार्णव' मालूम होता ३भाष्य और ४ टीका, इतने व्याख्या अन्य मौजूद थे। है। संभव है कि लेखकोंके भ्रमसे इन टीकाग्रंथोंमें इनमेंसे श्रीमद्वत्ति या वृत्ति तो यह अभयनन्दिकी महा 'जैनेन्द्र ' नाम शामिल हो गया हो। दूसरा यदि वृत्ति ही होगी, ऐसा जान पडता है। शेष तीन टीकायें 'जैनेन्द्र' नाम भी हो, तो ऐसा कुछ अनुचित अभी तक उपलब्ध नहीं हुई हैं। हमारा अनुमान भी नहीं है । क्यों कि गुणनन्दिने जो प्रयत्न किया है कि इनमेंसे एक टीकाग्रन्थ चाहे वह न्यास हो है, वह अपना एक स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे या भाष्य हो, स्वयं पूज्यपादस्वामीका बनाया हुआ नहीं किन्तु पूर्वनिर्मित — जैनन्द्र ' को सागपूर्ण होगा। क्यों कि वे केवल सूत्रग्रन्थ ही बनाकर रह बनानेकी सदिच्छासे किया है और इसी लिए गये होंगे, यह बात समझमें नहीं आती। अपनी उन्होंने जैनेन्द्र के आधेसे आधिक सूत्र ज्यों के त्यो मानी हई अतिशय सक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषारहने दिये हैं तथा मंगलाचरण आदि भी उसका ओंका स्पष्टीकरण करने के लिए उन्हें कोई टीका, ज्यो का त्यों रखना है। हमारा विश्वास है कि वृत्ति या न्यास अवश्य बनाना पड़ा होगा, जिस गुणनन्दि इस संशोधित और परिवर्तित सूत्र- तरह शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृत्ति पाठको ही तैयार करके न रहे गये होंगे, उन्होंने नामकी स्वोपज्ञ टीका बनाई है। इसपर कोई वृत्ति या टीका ग्रंथ भी अवश्य लिस्वा आचार्य विद्यानन्दने असहस्री (पृष्ठ १३२ ) में होगा, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है । सना- 'प्यस्खे कर्मण्युपसंख्यानात् का ' यह वचन उध्वृत मत जैन ग्रंथमालामें जो जैनेन्द्र-प्रक्रिया छपी है, किया है। यह किसी व्याकरण ग्रन्थका वार्तिक वह जैसा कि हम आगे सिद्ध करेंगे गुणनन्दिको है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं बनाई हुई नहीं है। मिलता। अभयनन्दिकी महावृत्तिमें अवश्य ही जैनेन्द्रकी टीकायें। "प्यखे कर्मणि का वक्तव्या" [४-१-३८] इस पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय प्रकारका वार्तिक है; परन्तु हमारा खयाल है कि तक केवल तीन ही टीकायें उपलब्ध है--१ अभयन- अभयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दसे पीछेकी बनी हुई दिकृत 'महावृत्ति , २ आर्यश्रुतकीर्तिकी ‘पंच- है, इस लिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभय नन्दिकी यस्तु-प्रक्रिया,' और ३ बुधमहाचन्द्रकृत 'लघु वृत्तिसे नहीं किन्तु अन्य ही किसी प्रन्यसे लिया जैनेन्द्र' । परन्तु इनके सिवाय इसकी और भी कई होगा और आश्चर्य नहीं जो वह स्वयं पूज्यपादकृत कायें होनी चाहिए । पंचवस्तुके अन्तमें नीचे टीकासन्ध हो । सुनते हैं, जैनेन्द्रका न्यास कर्नालिखा हुआ एक श्लोक है:-- टक प्रान्तके जैन पुस्तक भण्डारोंमें है । उसके प्राप्त सूत्रस्तम्भसमुध्दृतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्मक्षिति, करनेकी बहुत आवश्यकता है। उससे इस ब्याकश्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्योघशय्यातलम् । रणसम्बन्धी अनेक संशयोका निराकरण हो टीकामालमिहारुरुक्षर चितं जैनेन्द्र शब्दागर्म, प्रासादं पृथुगंत्रवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥ कायगा। Aho Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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