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________________ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी पक्षमें नहीं दे सके हैं । अब इसपर हमारा निवेदन प्रन्थोके भी प्रमाण देते हैं। और भी एक प्रमाण सुन लीजिए--- लीजिए--- " अल्पातरम्" [२-१-३४] यह सूत्र पाणि- सर्वार्थसिद्धि अ०७ सूत्र १६ की व्याख्यामें निका है और इसके ऊपर कात्यायनका “ अभ्य- लिखा है-“शास्त्रेऽपि · अश्ववृषयोमथुनेच्छायाहितं च वार्तिक तथा पतंजलिका "अभ्यहित पूर्व मित्येवमादिषु तदेव गृह्यते ।" यह पाणिनिके मिपतति" भाग्य है। इससे मालूम होता है कि ७-१-५२ सत्रपर कात्यायनका पहला वार्तिक है। पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिटीकाके इस वहां " अश्ववृषयोमैथुनेच्छायाम् " इतने शब्द हैं स्थलमें पाणिनि और पतंजलिके ही सूत्र तथा और इन्हींको सर्वार्थसिद्धिकारने लिया है। यहां भाष्यको लक्ष्यकर उक्त विधान किया कात्यायनके वार्तिकको उन्होंने 'शास्त्र' शब्दसे है। अब इस पर यह प्रश्न होगा कि व्यक्त किया है। जब सर्वार्थसिद्धिकार स्वयं एक व्याकरणके सर्वार्थसिद्धि अ०५ सूत्र की व्याख्या 'नित्य' कता है, तब उन्होंने पाणिनिका और उसके भाष्य- शब्दको सिद्ध करनेके लिए पूज्यपाद स्वामी का आश्रय क्यों लिया? हमारी समझमें इसका लिखते हैं:-- " नेः ध्रुवे त्यः इति निष्पाउत्तर यह है कि पूज्यपाद स्वामी यद्यपि सर्वार्थः दितत्वात् ।" परन्तु जैनेन्द्र में 'नित्य ' शब्दसिद्धिकी रचनाके समय अपना व्याकरण तो बना को सिद्ध करनेवाला कोई मुल सूत्र नहीं है, इस चुके होंगे परन्तु उस समय उनके व्याकरणने विशेष लिए अभयमन्दिने अपनी वृत्तिमें “ येस्तुट्" प्रसिद्धि लाभ नहीं की होगी और इस कारण स्वयं (३.२८१ सूत्रकी व्याख्यामें " नेधुवः इति वक्तउनकेही हृदयमें उसकी इतनी प्रमाणता नहीं होगी व्यम् । यह वार्तिक बनाया है और 'नियतं सर्वकि वे अन्य प्रसिद्ध व्याकरणों तथा उनके वार्तिकों काल भवं नित्यं ' इस तरह स्पष्ट किया है । जैनेऔर भाष्योको सर्वथा भुला देवे-या उनका आश्रय द्रो ' त्य' प्रत्यय ही नहीं है, इसके बदले 'य, महीं लेवें । कुछ भी हो परंतु यह तो निश्चय है कि प्रत्यय है । इससे मालूम होता है कि सर्वार्थसिद्धिइन्होंने अपनी सर्वार्थसिद्धिमै अन्य वैयाकरणोंके भी कारने स्वनिर्मित व्याकरणको लक्ष्यमें रखकर पूर्वोमत दिये हैं। इस विषयमें हम एक और प्रमाण त बात नहीं कही है। अन्य व्याकरणोंक प्रमाण उपास्थत करते हैं जो बहुत ही पुष्ट और स्पष्ट है---. भी वे देते थे और यह प्रमाण भी उसी तरह सर्वार्थसिद्धि अ० ४ सूत्र २२ की व्याख्याने का है। लिखा है-" यथाडुः द्रुतायां तपरकरणे मध्यम- परन्तु इससे पाठकोंको यह न समझ लेना विलम्बितयोरुपसंख्यानामीत।" इसकी अन्य पुरु- चाहिए कि सर्वार्थसिद्धि में प्रन्थकर्ताने अपने जैनेषकी 'आहुः' क्रिया ही कह रही है कि प्रन्थकर्ता यहां न्द्रसूत्रोंका कहीं उपयोग ही नहीं किया है । नहीं, किसी अन्य पुरुषका वचन दे रहे हैं। अब पतं. कुछ स्थानों में उन्होंने अपने निजके सूत्र भी दिये जलिका महाभाष्य देखिए । उसमें २-२-१ के ५ वे हैं। जैसे पांचवे अध्यायके पहले सूत्रके व्याख्यानमें वार्तिकके भाष्यमें बिलकुल यही वाक्य दिया लिखा है "विशेषणं विशेष्येण ' इति वृत्तिः।" हुआ है-एक अक्षरका भी हेरफेर नहीं है । इससे यह जैनेन्द्रका १-३-५२ वां सूत्र है । यह सूत्र शब्दास्पष्ट है कि सर्वार्थसिद्धिके कर्ता अन्य व्याकरण र्णवचन्द्रिका (१.३.४८) वाले पाढमें भी है। १तत्वार्थराजवातिकमें इसी । प्रमाणनयरधिगमः ... इन सब प्रमाणोंसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध सूत्रकी व्याख्या में पतंजलि का यह भाष्य ज्यों ना हो जाती है कि जनेन्द्रका असली सूत्रपाट वही है अक्षरशः दिया है । अभयनन्दिका भी यही वार्तिक है। जिसपर अभयनन्दिकृत वृत्ति है; शब्दार्णवचन्द्रि२ राजवार्तिक और लोकवार्तकमें भी यह वाक्य उध्दत तत्वार्धराजवातिकमें भी है. " शास्त्रेऽपि अश्वषयो मैथुनेच्छायामित्गेनमादौ तदेव कक्ष्यागने । " Aho Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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