SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४ ) जाएँ, किन्तु ज्यों-ज्यों हम अपने जीवन में अग्रसर होते हैं, हमें यह लगता है कि दुख की मात्रा बढ़ती चली जा रही है, एक निराशा छाती चली जाती है। ज्यों-ज्यों हमारा शरीर जीर्ण होता है, हमारा मन भी गिरता चला जाता है । हां केवल एक आशा जीर्ण नहीं होती। यह जीवन का एक यथार्थ चित्र है। यह ठीक है कि जीवन के बहुत से ऐसे नशे हैं-धन का नशा, रूप का नशा, या विद्या का भी नशा-जिनकी मस्ती में हमें दुख भूला रहता है पर इससे दुख की सत्ता नहीं समाप्त हो जाती। सांख्यदर्शन ने जिस दुख की अनिवार्य सत्ता की ओर हमारा ध्यान दिलाया, योगदर्शन ने उसका और भी अधिक गम्भीर विश्लेषण किया, विवेचन किया, और यह पाया कि संसार में वस्तुतः सुख कहीं है ही नहीं, वस्तुतः दुख ही दुख है। योगदर्शन ने इसके बहुत से कारण दिये, प्रथम कारण तो स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक सुख अस्थाई हैं, क्षणभंगुर हैं, उनके सम्बन्ध में हम कभी भी निश्चित होकर नहीं बैठ सकते कि वे प्राप्त होने के बाद छिन नहीं जाएंगे। दूसरे यह अस्थायी सुख भी सरलता से प्राप्त नहीं होते, इनके लिए एक कठोर संघर्ष करना पड़ता है, महान् कष्ट सहने पड़ते हैं। तीसरे संसार के समस्त सुख भोग हमारी स्वतन्त्रता का अपहरण कर लेते हैं। हम उन पर निर्भर होने लगते हैं और हमारी आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है। चौथे सांसारिक सुख हमारी इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर पाते प्रत्युत बढ़ाते ही हैं। जिसके पास सौ रुपया है वह हजार, जिसके पास हजार है वह लाख, और लखपति करोड़ और करोड़पति सम्राट् और सम्राट् इन्द्र और इन्द्र ब्रह्मा का पद पाने के लिये निरन्तर व्याकुल है। कहीं भी कृतकृत्यता नहीं है, सर्वत्र एक बेचैनी है। पांचवें जब हम सांसारिक पदार्थों के पीछे भागते हैं तो यह नहीं समझना चाहिए कि उन सांसारिक पदार्थों के पीछे भागने वाले हम अकेले हैं। संसार के सभी प्राणी उन्हीं पदार्थों के पीछे भाग रहे हैं। और यह स्वाभाविक है कि जब बहुत सारे प्राणियों को एक ही वस्तु प्राप्त करनी होगी तो उनमें परस्पर स्पर्धा का भाव आएगा, ईर्ष्या उत्पन्न होगी, संघर्ष और कलह बढ़ेगा। छठा कारण और अन्तिम कारण जो योगसूत्र में सुखों के प्रति वितृष्णा का दिया गया है वह यह है कि संसार के समस्त सुखभोगों को भोगने का साधन इन्द्रियां हैं। परन्तु इन सुखभोगों का भोग ही इन्द्रियों को १. परिणामतापसंस्कारदुःखर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्व विवेकिनः । F-योगसूत्र, गोरखपुर, वि० सं० २०१३, २.१५.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy