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________________ ( ३३ ) के परिणाम हैं। तब यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वे दुख से रहित हों।' इस पारिभाषिक शब्दजाल से निकलकर अगर हम इस तथ्य को समझने का प्रयत्न करें, तो हम कह सकते हैं कि प्रत्येक अनुभूति में एक अतृप्ति का भाव अवश्य बना रहता है; कुछ और प्राप्त हो जाए, यह भाव अवश्य बना रहता है; कृतकृत्यता का भाव नहीं आता। अत: इस सुख को पूर्ण सुख नहीं कहा जा सकता। हमारे समस्त दुख सांख्यदर्शन के अनुसार तीन भागों में वर्गीकृत हो सकते हैं-१. आध्यात्मिक, अर्थात् वे दुख जो मनुष्य के अपने देह या मन से उत्पन्न होते हैं, २. आधिभौतिक अर्थात् वे दुख जो मनुष्य के अपने व्यक्तित्व से उत्पन्न न होकर पशु-पक्षी या अन्य प्राणियों द्वारा उत्पन्न होते हैं, ३. आधिदैविक अर्थात् वे दुख जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होते हैं। यह ठीक है कि इन दुखों को दूर करने के लौकिक उपाय हैं और उन उपायों को हर व्यक्ति अपनी सहज बुद्धि से जानता है और इसके लिये किसी धर्म-दर्शन की चर्चा आवश्यक नहीं है। किन्तु वे सर्वजनप्रसिद्ध लौकिक उपाय इन दुखों को सर्वथा दूर नहीं कर सकते । प्रथम तो यह निश्चित नहीं है, कि लौकिक उपायों से कोई दुख अवश्य दूर हो ही जाये । उदाहरणतः औषधि रोग को दूर कर भी सकती है, पर शायद न भी करे। दूसरे लौकिक उपायों से जो दुख का निवारण है, वह स्थायी नहीं है, अस्थायी है। सांख्यदर्शन ने जो कुछ हमने चार्वाक या पूर्वमीमांसा से सीखा था, उसकी अपेक्षा एक सोपान आगे बढ़कर यह तथ्य स्पष्ट किया कि चार्वाक जिन इहलौकिक सूखों का और पूर्वमीमांसा जिन पारलौकिक सुखों का गान करती है, वे सुख शुद्धतः सुख नहीं हैं। सांख्यदर्शन का यह कथन यदि हम अपने जीवन में घटाकर देखें तो हमें लगेगा कि हमारे जीवन में दुख की एक अज्ञात छाया हमारा सर्वदा अनुकरण कर रही है । यद्यपि चाहे हमारे सुख-साधन दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही क्यों न चले १. तदेतत्प्रत्यात्मवेदनीयं दुःखं रज:परिणामभेदो न शक्यते प्रत्याख्यातुम् । वाचस्पतिमिश्र, सांख्यकारिका, १. २. वही, सांख्यकारिका, १. ३. दु:खत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ।। सवा सांख्यकारिका, १.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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