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________________ ( ३२ ) दिया जहां हर सत्य को तर्क और अनुभव की कसौटी पर कसा जाना है। हम भूत और भविष्य की चिन्ताओं से मुक्त रहें, इसका अर्थ यह नहीं है कि हम भूत और भविष्य को सर्वथा मिथ्या ही मान लें, उनकी सत्ता ही न माने । मनुष्य जो कुछ है, वह अपने भूत काल के कर्मों का परिणाम है । और मनुष्य जो कर्म वर्तमान में करता है, वे कर्म वर्तमान में ही विलीन नहीं हो जाते, अपनी छाप भविष्य के लिये भी छोड़ जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो कार्यकारण की वैज्ञानिक परम्परा ही टूट जाएगी, और हमारी यह आस्था भी कि अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा फल अवश्य प्राप्त होता है, टूट जाएगी। पूर्वमीमांसा वैदिक दर्शनों में शायद सबसे पुराना दर्शन है जो मरण के उपरान्त भी जीव की सत्ता को स्वीकार करता है। किन्तु पूर्वमीमांसा वर्तमान जीवन की उपेक्षा नहीं करता। वह परलोक को मानता है पर इहलोक को असत्य नहीं मानता। वह इस लोक के सुख भोगों को भी असत्य नहीं मानता। पूर्वमीमांसा में वस्तुतः यह विवेक कि सुख के साधन और सुख में मौलिक भेद है, उत्पन्न नहीं हुआ था। परलोक में भी प्राप्त होने वाले सुख वस्तुतः इस लोक में प्राप्त होने वाले सुखों का ही एक उत्कृष्ट रूप हैं । परिणाम और तारतम्य की दृष्टि से परलोक के सुख इस लोक में सुख की अपेक्षा बहुत अधिक हैं । किन्तु वे सुख जाति की दृष्टि से इस लोक के सुखों से भिन्न नहीं हैं। मीमांसा-दर्शन ने हमें स्वर्ग की कल्पना दी जिस स्वर्ग में हमारी वे इच्छाएं जो इस लोक में अतृप्त रह जाती हैं, तृप्त होती हैं। स्वर्ग में समस्त सुखों के साधन हैं, कल्पवृक्ष हैं, अप्सराएं हैं, विमान हैं, और जिन सुखों की भी हम कल्पना कर सकते हैं, वे समस्त सुख स्वर्ग में हैं, और समस्त धर्मोपदेश का लक्ष्य स्वर्ग से बढ़कर कुछ नहीं है। पूर्वमीमांसा के द्वारा जो यह सुख का स्वरूप दिया गया, वह उसकी अपनी मौलिक देन है और भारत में चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शनों ने उसे अपनी-अपनी पद्धति में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। किन्तु क्या स्वर्ग जीवन का अन्तिम लक्ष्य हो सकता है ? क्या भोग और विलास के साधन हमें पूर्णतः तृप्त कर सकते हैं ? क्या विषय सुख सर्वथा दुखरहित हो सकते हैं चाहे वे विषय सुख स्वर्ग के ही क्यों न हों ? सम्भवतः सर्वप्रथम यह जिज्ञासा सांख्यदर्शन के साहित्य में हुई । सांख्यदर्शन ने यह अनुभव किया कि हमारे प्रत्येक अनुभव में न्यून या अधिक मात्रा में प्रकृति के तीनों तत्व-सत्त्व रजस् और तमस् मिले रहते हैं। समस्त सुखभोग रजोगुणी प्रवृत्ति
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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