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________________ ( ३१ ) की कसौटी पर कसना चाहा और इस प्रयत्न में यद्यपि वह जीवन के बहुत से आवश्यक तत्त्वों की उपेक्षा कर गया, किन्तु इसके साथ-ही-साथ जीवन के बहुत से अनावश्यक तत्त्व जो व्यर्थ के चिन्तन से उत्पन्न हो गये थे, उसके द्वारा दूर कर दिये गये । यद्यपि यज्ञों में प्रचलित पशुहिंसा की निंदा बौद्ध और जैनों ने की, किन्तु ऐसा लगता है कि इसका सूत्रपात चार्वाक लोगों ने ही कर दिया था क्योंकि यज्ञ में मारा गया पशु परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति करता है, इस मत का खण्डन यह कहकर कि यदि ऐसा है, तो तुम अपने पिता को यज्ञ में मार कर स्वर्ग क्यों नहीं भेज देते' चार्वाकों की ही मौलिक उद्भावना लगती है और यह तर्क चार्वाकों के द्वारा कहे जाने पर अधिक बलवान् प्रतीत इसलिये भी होता है कि इस तर्क का जो आधार है, शास्त्र वचन या परलोक, चार्वाक दोनों को ही नहीं मानता, जबकि जैन या बौद्ध उन दोनों को ही मानते हैं। चार्वाक दर्शन एक बहुत बड़ी शिक्षा हमें दे सकता है और वह शिक्षा है कि हम वर्तमान में जीयें, भूत और भविष्य की व्यर्थ कल्पनाओं में वर्तमान को बिगाड़ना बुद्धिमत्ता नहीं है । भूतकाल ने जो कुछ हमें देना था, वह हमें वर्तमान के रूप में दे दिया और भूतकाल स्वयं समाप्त हो गया । अब हम उसे दुबारा से नहीं जी सकते। भविष्य अभी अनागत है और भविष्य ने जो कुछ बनना है, वह वर्तमान में ही बनना है । अाज का वर्तमान बीते हुए कल में भूतकाल बन जाएगा और आने वाले कल में रहने वाला भविष्यकाल भी कभी वर्तमान बन जाने वाला है । वस्तुतः यदि हम अपने जीवन पर ध्यान दें तो हमारे सारे दुख वास्तविक नहीं हैं। वे भूत और भविष्य की चिन्ता से प्रारम्भ होते हैं और हमारी उन भूत और भविष्य सम्बन्धी चिन्ताओं में से अधिकतर चिन्ता निराधार होती हैं, काल्पनिक होती हैं। भूतकाल सम्बन्धी समस्त चिन्ताएं और विचार तो वैसे ही गत हो चुके हैं। उनकी सत्ता समाप्त हो चुकी है। भविष्य के सम्बन्ध में भी जो अनागत चिन्ताएं हैं, उनमें भी बहुत सारी कभी वास्तविक रूप धारण नहीं करेंगी। इस प्रकार चार्वाक दर्शन ने भूतकाल और परलोक की चिन्ताओं में जो हम अपने वर्तमान की उपेक्षा कर रहे थे, उसकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया और जीवनदर्शन को प्रत्यक्ष पर आधारित करके उसे एक प्रयोगात्मक विज्ञान का रूप १. पशुश्चेन्निहत: स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते । --सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. १३
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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