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________________ ऋषभ जिनेश्वर प्रथम प्रवर्तक थे दुनियां ने मान लिया । तिब्बत के अष्टापद से निर्वाण हुआ था जान लिया । सूक्ष्मशोध को गठित हुआ इक अन्तर्राष्ट्रीय फाउन्डेशन । लक्ष्य बनाया सभी विधागत सभी सूचना एकत्रण । अखिल विश्व के जन-गण से सहयोग करें आह्वान जी । गिरि कैलाशा पर भी हो प्रभु-स्मृति का निर्माण जी ॥ ५ ॥ जे सी ए के जन-गण-मन का सार्थक हुआ उपार्जित द्रव्य । यू एस ए-न्यूयोर्क-क्वीन्स के क्षेत्र में जन्मा मन्दिर भव्य ।। सहस दूसरे दस के सन मे बीस जून का काल पवित्र । भावों की मंगलमय परिणति, हुआ अष्टापद बिम्ब प्रतिष्ठ ।। चौबीस जिनालय दर्शन कर के धन्य करें मन-प्राण जी । वन्दन-पूजन-आरति के फल, पायें सब आतम धाम जी ॥६॥ दन्य नगर यह, धन्य डगर यह, अमर हुआ अमरिका देश । सत्या अहिंसक धर्म शरण का फैलाने शाश्वत संदेश । अनेकांत का बोध कराने, अपरिग्रह का देने निर्देश । करुणा, मैत्री ओ प्रमोद का दिखलाने सुंदर परिवेश । शांति का चिर मार्ग सुझाने केंद्र बना अभिराम जी । वंदन रूप अचिंत्य फल पा बनें अभय, निष्काम जी ॥७ ।। जगमग जगमग करें आरती आदिनाथ भगवान की । धर्म-चक्र के आद्य प्रवर्तक तीर्थंकर गुणखान जी । जगमग जगमग करें आरती आदिनाथ भगवान की । धर्म-चक्र के आद्य प्रवर्तक तीर्थंकर गुणखान जी ॥ ८ ॥ - अभय जैन कासलीवाल XVI
SR No.009860
Book TitleAshtapad Maha Tirth 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Others
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2012
Total Pages532
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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