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________________ स्वयं कठोर तपश्चरण रूप साधना कर वह आदर्श जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया । एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि ने लिखा है कि "ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे, जिन्होंने सर्वप्रथम मर्त्यदशा में अमरत्व की उपलब्धि की थी।" ऋषभदेव, विशुद्ध प्रेम - पुजारी के रूप में विख्यात थे। सभी प्राणियों के प्रति मैत्री - भावना का उन्होंने संदेश दिया । इसलिये मुद्गल ऋषि पर ऋषभदेव की वाणी का विलक्षण प्रभाव पड़ा- 'मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ जो अरिदमन के लिये नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके परिणामस्वरूप मुद्गल ऋषि की गायें जो दुर्धर रथ से योजित हुई दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी की ओर लौट पड़ीं।" ऋग्वेद की प्रस्तुत ऋचा में 'अरिदमन' कर्म रूप शत्रुओं को सूचित करता है। गायें इन्द्रियाँ हैं, और दुर्धर रथ ‘शरीर' के अलावा और कौन हो सकता है ? भगवान् ऋषभदेव की अमृतवाणी से अस्थिर इन्द्रियाँ, स्थिर होकर मुद्गल की स्वात्मवृत्ति की ओर लौट आयीं। इसीलिये उन्हें स्तुत्य बताया गया है'मधुरभाषी, बृहस्पति स्तुति योग्य ऋषभ को पूजा साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो, वे अपने स्तोता को नहीं छोड़ते और भी एक जगह कहा है- तेजस्वी ऋषभ के लिये प्रेरित करो।' ऋम्वेद के रुद्रसूक्त में एक ऋचा है, उसमें कहा है- हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हम कभी नष्ट न हों। इस प्रकार ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर उनकी स्तुति महादेव के रूप में सर्वप्रथम अमरत्व पाने वाले रूप में, आदर्श प्रेम-पुजारी के रूप में और अहिंसक आत्म-साधकों के रूप में की गयी है। २. यजुर्वेद यजुर्वेद में स्तुति करते हुए कहा गया है- मैंने उस महापुरुष को जाना है जो सूर्यवत् तेजस्वी तथा अज्ञानादि अन्धकार से बहुत दूर हैं । उसी का परिज्ञान कर मृत्यु से पार हुआ जा सकता है। मुक्ति के लिये इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग नहीं।" ऐसी ही स्तुति भगवान् ऋषभदेव की माननुज्ञाचार्य द्वारा की गई है। शब्द साम्यता की दृष्टि से भी दोनों में विशेष अन्तर दृष्टिगत नहीं होता । अतः ये दोनों स्तुतियाँ किसी एक ही व्यक्ति को लक्षित करके होनी चाहियें और वे भगवान् ऋषभदेव ही हो सकते हैं। १२ I ३. अथर्ववेद अथर्ववेद का ऋषि मानवों को ऋषभदेव का आह्वान करने के लिये यह प्रेरणा करता है, कि 'पाप से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्वप्रथम तथा भवसागर के पोत को मैं हृदय से आह्वान करता हूँ। हे सहचर बन्धुओ ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो । ३ क्योंकि वे प्रेम के राजा ६ तन्मर्त्यस्य देवत्य सजातमग्रः 1 ७ ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद् अवावचीत् सारथिरस्य केशी । Shri Ashtapad Maha Tirth दुधेर्युक्तस्या द्रवतः सहानतः ऋच्छन्तिष्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ॥ ऋग्वेद ३१।१७ - ऋग्वेद १०।१०।२।६ ८ अनर्वाणं ऋषभं मन्द्रजिह्वं वृहस्पति वर्धया नध्यमर्के ऋग्वेद १ । १९०/१ ९ प्राग्नये वाचमीरय - वही, १०।१८७ १० एव वभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीषं न हंसी। -वही, रुद्रसूक्त, २|३३|१५ ११ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः पुरस्तात् । तमेव निदित्वाति मृत्युमेति नान्य पन्था विधतेऽयनाय ।। १२ देखिये- भक्तामर स्तोत्र, श्लोक २३ । १३ अहोमुचं वृषभं यज्ञियानां, विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अपां न पातमश्विना हुं वे धिय, इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः । - अथर्ववेद, कारिका १९।४२।४ $249 Rushabhdev Ek Parishilan
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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