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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth हैं, उन्होंने उस संघ की स्थापना की है, जिसमें पशु भी मानव के समान माने जाते थे, और उनको कोई भी नहीं मार सकता था। १४ ।। इस प्रकार वेदों में भगवान् ऋषभदेव का उत्कीर्तन किया गया है। साथ ही वैदिक ऋषि विविध प्रतीकों के रूप में भी ऋषभदेव की स्तुति करते हैं। * भगवान् ऋषभ के विविध रूप : १. ऋषभदेव और अग्नि ऋग्वेद आदि में अग्निदेव की स्तुति की गई है। इस अग्निदेव की स्तुति में प्रयुक्त विशेषणों से ऐसा प्रतिबोध होता है कि वह स्तुति अग्निदेव के रूप में भगवान् ऋषभदेव की ही की गई है जैसे-जातवेदस् शब्द जो अग्नि के लिये प्रयुक्त किया है, वह जन्म से ज्ञान सम्पन्न ज्योतिस्वरूप भगवान् ऋषभदेव के लिये ही है। 'रत्नधरक्त' अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय को धारण करने वाला, 'विश्ववेदस्' विश्व तत्त्व के ज्ञाता, मोक्ष नेता, 'ऋत्विज' धर्म के संस्थापक आदि से ज्ञात होता है, कि वह अग्नि भौतिक अग्नि न होकर आदि प्रजापति ऋषभदेव हैं। इस कथन की पुष्टि अथर्ववेद के एक सूक्त से होती है जिसमें ऋषभदेव भगवान् की स्तुति करते हुए उन्हें 'जातवेदस्’ बताया है। वहाँ कहा है- 'रक्षा करने वाला, सबको अपने भीतर रखने वाला, स्थिरस्वभावी, अन्नवान् ऋषभ संसार के उदर का परिपोषण करता है। उस दाता ऋषभ को परम ऐश्वर्य के लिये विद्वानों के जाने योग्य मार्गों से बड़े ज्ञान वाला अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष प्राप्त करे। १५ अग्निदेव के रूप में ऋषभ की स्तुति का एकमात्र हेतु यही दृष्टिगत होता है कि जब भगवान् ऋषभदेव स्थूल और सूक्ष्म शरीर से परिनिवृत्त होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए उस समय उनके परम प्रशान्त रूप को आत्मसात् करने वाली अन्त्येष्टि अग्नि ही तत्कालीन जन-मानस के लिये संस्मृति का विषय रह गई। जनता अग्नि-दर्शन से ही अपने आराध्यदेव का स्मरण करने लगी। इसीलिये वेदों में स्थान-स्थान पर 'देवा अग्निम् धारयन् द्रविणो-दाम्' शब्द द्वारा अग्निदेव की स्तुति की गई है।१६ इसका अर्थ है- अपने को देव संज्ञा से अभिहित करने वाले आर्यजनों ने धन-ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले अग्नि (प्रजापति ऋषभ) को अपना आराध्यदेव धारण कर लिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण समय से ही अग्नि के द्वारा पूजा-विधि की परम्परा शुरू हो गई थी। २. ऋषभदेव और परमेश्वर अथर्ववेद के नवम काण्ड में ऋषभदेव शब्द से परमेश्वर का ही अभिप्राय ग्रहण किया है और उनकी स्तुति परमेश्वर के रूप में अत्यन्त भक्ति के साथ की गई है- 'इस परमेश्वर का प्रकाशयुक्त सामर्थ्य सर्व उपायों को धारण करता है, वह सहस्रों पराक्रमयुक्त पोषक है, उसको ही यज्ञ कहते हैं। हे विद्वान् लोगो! ऐश्वर्य रूप का धारक, हृदय में अवस्थित मंगलकारी वह ऋषभ (सर्वदर्शक परमेश्वर) हमको अच्छी तरह से प्राप्त हो।१७ जो ब्राह्मण, ऋषभ को अच्छी तरह प्रसन्न करता है, वह शीघ्र सैकड़ों प्रकार के तापों से मुक्त हो जाता है, उसको सब दिव्य गुण तृप्त करते हैं।१८ १४ 'नास्य पशुन समानान् हिनास्ति' -वही १५ पुमानन्तर्वान्त्स्थविरः पयस्वान् वसोः कबन्धमूषभो विभर्ति। तमिन्द्राय पथिभिर्देवयानैर्हतमग्निर्वहतु जातवेदाः।। -अथर्ववेद ९।४।३ १६ पूर्वया निविदा काव्यतासोः यमा प्रजा अजन्यत् मनुनाम् ।। विवस्वता चक्षुषा धाम पञ्च, देवा अग्निम् धारयन् द्रविणोदाम् ।। १७ आज्यं बिभर्ति घृतमस्य रेतः साहस्रः पोषस्तमु यज्ञमाहुः । इन्द्रस्य रूपमृषभो वसानः सो अस्मान् देवाः शिव ऐतु दत्तः।। -अथर्ववेद ९।४।७ १८ शतयाजं स यजते, नैनं न्वन्त्यग्नयः जिन्वन्ति विश्वे त देवा यो ब्राह्मण ऋषममाजुहोति ।। -अथर्ववेद ९।४।१८ Rushabhdev : Ek Parishilan - -26 2500
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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