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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth • वैदिक साहित्य में ऋषभदेव ऋषभदेव का महत्त्व केवल श्रमण परम्परा में ही नहीं, अपितु ब्राह्मण - परम्परा में भी रहा है । परन्तु अधिकांशतः जैन यही समझते हैं, कि ऋषभदेव मात्र जैनों के ही उपास्यदेव हैं, तथा अनेकों जैनेतर विद्वद्वर्ग भी ऋषभदेव को जैन उपासना तक ही सीमित मानते हैं। जैन व जैनेतर दोनों वर्गों की यह भूल-भरी धारणा है क्योंकि अनेकों वैदिक प्रमाण भगवान् ऋषभदेव को आराध्यदेव के रूप में प्रस्तुत करने के लिये विद्यमान हैं। ऋग्वेदादि में उनको आदि आरध्य देव मानकर विस्तृत रूप से वर्णन किया है । यद्यपि कुछ साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण इन मंत्रों के भाष्यकारों ने एक निराला अर्थ कर दिया, किन्तु इससे वास्तविकता को नहीं मिटाया जा सकता। यदि ऋषभ, श्रमण परम्परा के ही आराध्यदेव होते तो वैदिक संस्कृति में उससे मिलते-जुलते स्वर उपलब्ध नहीं हो सकते थे । यही कारण है, कि डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. जिम्मर, प्रो. विरूपाक्ष वॉडियर प्रभृति विद्वान् वेदों में जैन तीर्थकरों का उल्लेख होना स्वीकार करते हैं । * वेदों में ऋषभदेव १. ऋग्वेद : ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ रत्न है। उसकी एक ऋचा में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की स्तुति की गई है। वैदिक ऋषि भक्ति भावना से विभोर होकर उस महाप्रभु की स्तुति करते हुए कहता हैहे आत्मदृष्टा प्रभो ! परमसुख प्राप्त करने के लिये मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ क्योंकि तेरा उपवेश | और तेरी वाणी शक्तिशाली है, उनको मैं अवधारण करता हूँ। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्ही पहले पूर्वयाया (पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक) हो । ऋग्वेद में ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाशक कहा है। वहाँ बताया है कि जैसे जल से भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, वह पृथ्वी की प्यास बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी अर्थात् ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ (ऋषभ) महान हैं, उनका शासन वर दे। उनके शासन में ऋषि - परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान आत्मिक शत्रु क्रोधादि का विध्वंसक हो। दोनों प्रकार की आत्माएँ (संसारी और सिद्ध) स्वात्मगुणों से ही चमकती हैं। अतः वे राजा हैं, वे पूर्ण ज्ञान के भण्डार हैं और आत्म-पतन नहीं होने देते। वर्षा की उपमा भगवान् ऋषभदेव के देशना रूपी जल की ही सूचक है । पूर्वगत ज्ञान का उल्लेख भी जैनपरम्परा में मिलता है, अतः ऋग्वेद के पूर्वज्ञाता ऋषभ, तीर्थङ्कर ऋषभ ही माने जा सकते हैं। ‘आत्मा ही परमात्मा है" यह जैनदर्शन का मूलभूत सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के शब्दों में श्री ऋषभदेव ने इस रूप में प्रतिपादित किया- “जिसके चार शृंग-अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य हैं। तीन पाद हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र दो शीर्ष है- केवलज्ञान और मुक्ति तथा जो मन-वचन-काय, इन तीनों योगों से बद्ध अर्थात् संयत वृषभ हैं उन्होंने घोषणा की, महादेव (परमात्मा) मत्यों में निवास करता है।" अर्थात् प्रत्येक आत्मा में परमात्मा का निवास है। उन्होंने १ ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम् । हंतारं शत्रुणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम् । २ मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभि वाचमृताय भूषन् । इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां देवी नामुत पूर्वयाया । ३ असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनिमा अरय शुरुषः सन्ति पूर्वीः । दिवो न पाता विदथस्यधीभिः क्षत्रं राजना प्रदिवोदधाथे । - ऋग्वेद ५२।३८ ४ (क) अप्पा सो परमप्पा (ख) दामुक्तं .... कारणपरमात्मानं जानाति । Rushabhdev: Ek Parishilan ऋग्वेद १०।१६६ |१ - ऋग्वेद २।३४।२ - नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, गा. ९६ ५ चत्वारि श्रृङ्गार त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती महादेवो मर्त्यानाविवेश || - ऋग्वेद ४।५८1३ 8 248 a
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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