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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth जिनेंद्रप्रतिमाचैवास्थाप्य मंत्रपुरत्सरं ।। ३५३ ।। ताखिकालं समभ्यर्च्य गृहस्थैविंहितादराः । भवतातिथयो यूयमित्याचख्युरुपासकान् ||३५४ || स्नेहेनेष्टवियोगोत्थः प्रदीप्तः शोकपावकः । तथा प्रबुद्धमप्यस्य चेतोऽधाक्षीदधीशितुः । । ३५५ || गणी वृषभसेनाख्यस्तच्छोकापनिनीषया । प्राक्रंस्त वक्तुं सर्वेषां स्वेषां व्यक्तां भवावलीम् ।।३५६।। जयवर्मा भवे पूर्वे द्वितीयेऽभून्महाबलः तृतीये ललितांगाख्यो वज्रजंधश्चतुर्थक || ३५७|| पंचमें भोगभूजोऽभूत षष्ठेऽयं श्रीघरोऽमरः । सप्तमे सुविधिः क्षमाभूवष्टमेऽच्युतनायकः || ३५८ || नवमे वज्रनाभीशो दशमेऽनुत्तरांत्यजः। ततोऽवतीर्य सर्बेद्रवंदिते वृषभोऽभवत् ।। ३५९ ।। धनश्रीरादिमे जन्मन्यतो निर्णायिकां ततः । स्वयंप्रभा ततस्तस्माच्छ्रीमत्यार्या ततोऽभवत् || ३६० || स्वयंप्रभः सुरस्तस्मादस्मादपि च केशवः । ततः प्रतीव्रयस्तस्माच्च धनवत्तोऽहमिंद्रतां || ३६१ ।। गतस्ततस्ततः श्रेयान् वानतीर्थस्य नायकः । आश्चर्यपंचकस्यपि प्रथमोऽभूत्प्रवर्तकः ।।३६२ || अतिगृद्धः पुरा पश्चान्नारकोऽनु चमूरकः । दिवाकरप्रभो देवस्तथा मतिवराह्वयः ।।३६३।। ततोऽहमिंद्रस्तस्माच्च सुबाहुरहमिंद्रतां । प्राप्य त्वं भरतो जातः षट्खंडाखंडपालकः || ३६४ ।। । इन तीनों संध्याओं में स्वयं इन तीनों अग्नियों की स्थापना करनी चाहिये। उन तीनों अग्नियों के समीप ही चक्र, छत्र तथा श्री जिनेन्द्रदेव की स्थापना करनी चाहिये और तीनों समय मंत्र पूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । इस तरह गृहस्थों के द्वारा आदर-सत्कार पाते हुये लोग अतिथि बनो। यह सब उपदेश इन्द्रने ब्रह्मचारियों को दिया ।।३५१-३५४।। उस समय इष्ट के वियोग से उत्पन्न हुई और स्नेह से बढ़ी हुई भरत की शोकरूपी अग्नि जग उठी थी और वह उनके प्रबुद्ध हुए चित्त को भी जला रही थी || ३५५ || तब श्री वृषभसेन गणधर भरत के शोक को दूर करने की इच्छा से अपने सब लोगों के पहिले भव स्पष्ट रीति से कहने लगे || ३५६ || कि श्री वृषभदेव का जीव पहिले जयवर्मा था, दूसरे जन्म में राजा महाबल हुआ, तीसरे भव में ललितांग देव हुआ और चौथे भव में राजा सुविधि हुआ और आठवें भव में भोगभूमि में उत्पन्न हुआ, छठे में श्रीधर देव हुआ, सातवे में राजा वज्रजंघ हुआ || ३५७ ।। पाँचवें भव में भोगभूमि में उत्पन्न हुआ, छठे में श्रीधर देव हुआ, सातवें में राजा सुविधि हुआ, और आठवें भव में अच्युतस्वर्ग का इन्द्र हुआ || ३५८ ।। नौवें भव में राजा वज्रनाभि हुआ, दशवें भव में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ और वहाँ से आकर सब इन्द्रों के द्वारा पूज्य ऐसा श्री वृषभदेव हुआ है || ३५९ || श्रेयानक जीव पहिले धनश्री था, दूसरे जन्म नें निर्नायिका, तीसरे भव में स्वयंप्रभा देवी, चौथे भाव में वज्रजंघ की रानी श्रीमती, पाँचवें भव में भोगभूमि में आर्या, छड्डे भव में स्वयंप्रभदेव, वहाँ से आकर सातवें भव में राजा सुविधि का पुत्र केशव, आठवें भव में सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र, नौवें भव में वज्रनाभिचक्रवर्ती का गृहपति रत्न धनदत्त और फिर दशवे भव में अहमिन्द्र हुआ || ३६०३६१।। वहाँ से आकार दानतीर्थ की प्रवृत्ति करनेवाला और पंचाश्चर्य का स्वामी यह राजा श्रेयान् हुआ || ३६२|| तेरा जीव पहिले राजा अतिगृद्ध था। दूसरे जन्म में नरक गया, तीसरे भव में सिंह, चौधे में दिवाकरप्रभ नाम का देव और पाँचवें भव में राजा वज्रजंघ का मतिवर नामका मंत्री हुआ था || ३६३ || छठ्ठे भव में अहमिन्द्र, सातवें भव में वज्रनाभि चक्रवर्ती का छोटा भाई सुबाहु हुआ । आठवें भव में अहमिन्द्र पद पाकर नौवें भव में छहों खण्ड पृथ्वी का पालन करनेवाला राजा भरत हुआ है || ३६४ || as 35 a Adipuran
SR No.009854
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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