SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth विधि से न मिलने के कारण आपको छह माह तक भ्रमण करना पड़ा। आपका यह विहार अयोध्या से उत्तर की ओर हुआ और आप चलते-चलते हस्तिनापुर जा पहुँचे। वहाँ के तत्कालीन राजा सोमप्रभ थे। उनके छोटे भाई का नाम श्रेयांस था। इस श्रेयांस का भगवान् ऋषभदेव के साथ पूर्वभव का सम्बन्ध था। वज्रजंघ की पर्याय में यह उनकी श्रीमती नाम की स्त्री था। उस समय इन दोनों ने एक मुनिराज के लिए आहार दिया था। श्रेयांस को जाति-स्मरण होने से वह सब घटना स्मृत हो गयी। इसलिए उसने भगवान् को देखते ही पडगाह लिया और इक्षुरस का आहार दिया। वह आहार वैशाख सुदी तृतीया को दिया गया था तभी से इसका नाम 'अक्षयतृतीया' प्रसिद्ध हुआ। राजा सोमप्रभ, श्रेयांस तथा उनकी रानियों का लोगों ने बड़ा सम्मान किया। आहार लेने के बाद भगवान् वन में चले जाते थे और वहाँ के स्वच्छ वायु-मण्डल में आत्मसाधना करते थे। एक हजार वर्ष के तपश्चरण के बाद उन्हें दिव्यज्ञान-केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अब वे सर्वज्ञ हो गये, संसार के प्रत्येक पदार्थ को स्पष्ट जानने लगे। उनके पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती हुए। उन्होंने चक्ररत्न के द्वारा षट्खण्ड भरतक्षेत्र को अपने अधीन किया और राजनीति का विस्तार करके आश्रित राजाओं को राज्य-शासन की पद्धति सिखलायी। उन्होंने ही ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये चार वर्ण इस भारत में प्रचलित हुए। इसमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण आजीविका के भेद से निर्धारित किये गये थे और ब्राह्मण व्रती के रूप में स्थापित हुए थे। सब अपनी-अपनी वृत्ति का निर्वाह करते थे, इसलिए कोई दुःखी नहीं था। भगवान् ऋषभदेव ने सर्वज्ञ दशा में दिव्य ध्वनि के द्वारा संसार के भूले-भटके प्राणियों को हित का उपदेश दिया। उनका समस्त आर्यखण्ड में विहार हुआ था। आयु के अन्तिम समय वे कैलास पर्वत पर पहुँचे और वहीं से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। भरत चक्रवर्ती यद्यपि षट्खण्ड पृथ्वि के अधिपति थे, फिर भी उसमें आसक्त नहीं रहते थे। यही कारण था कि जब उन्होंने गृहवास से विरक्त होकर प्रव्रज्यादीक्षा धारण की तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान हो गया था। केवलज्ञानी भरत ने भी आर्य देशों में विहार कर समस्त जीवों को हित का उपदेश दिया और आयु के अन्त में निर्वाण प्राप्त किया। * भगवान् ऋषभदेव और भरत का जैनेतर पुराणादि में उल्लेख : भगवान् ऋषभदेव और सम्राट् भरत ही आदिपुराण के प्रमुख कथानायक हैं। उनका वर्तमान पर्यायसम्बन्धी संक्षिप्त विवरण उपर लिखे अनुसार है। भगवान् ऋषभदेव और सम्राट् भरत इतने अधिक प्रभावशाली पुण्य पुरुष हुए हैं कि उनका जैनग्रन्थों में तो उल्लेख आता ही है, उसके सिवाय वेद के मन्त्रों, जैनेतर पुराणों, उपनिषदों आदि में भी उल्लेख मिलता है। भागवत में भी मरुदेवी, नाभिराय, ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत का विस्तृत विवरण दिया है। यह दूसरी बात है कि वह कितने ही अंशों से भिन्न प्रकार से दिया गया है। इस देश का भारत नाम भी भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रसिद्ध हुआ है। निम्नांकित' उद्धरणों से हमारे उक्त कथन की पुष्टि होती है-- "अग्निध्रसूनो भेस्तु ऋषभोऽभूत् सुतो द्विजः। ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताद् वरः।।३९।। सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थितः। तपस्तेपे महाभागः पुलहाश्रमसंशयः॥४०॥ हिमाढे दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः" ।। ४१॥ -मार्कण्डेयपुराण, अध्याय ४० "हिमाह्वयं तु यद्वर्षं नाभेरासीन्महात्मनः। तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मरुदेव्या महाद्युतिः॥३७ ।। ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रः शताग्रजः। सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं भरतं पृथिवीपतिः" ।।३८ ।। - कूर्मपुराण, अध्याय ४१ -6 29 - Adipuran
SR No.009854
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy