SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth वित्थिण्णविउलवच्छं, तवसिरिभरियं पलम्बभुवजुयलं । अचलियझाणारूढं, मेरुं पिव निच्चलं धीरं ॥ ६२ ॥ संभरिय पुव्ववेरं, भिउडिं काऊण फरुसवयणेहिं । अह भणिऊण पवत्तो, दहवयणो मुणिवरं सहसा ॥ ६३ ॥ अइसुन्दरं कयं ते, तवचरणं मुणिवरेण होऊणं । पुव्वावराहजणिए, जेण विमाणं निरुद्धं मे ॥ ६४ ॥ कत्तो पव्वज्जा ते?, कत्तो तवसंजमो सुचिण्णो वि? । जं वहसि राग-दोसं, तेण विहृत्थं तुमे सव्वं ।। ६५ ।। फेडेमि गारवं ते, एयं चिय पव्वयं तुमे समयं । उम्मूलिऊण सयलं, घत्तामि लहुं सलिलनाहे ॥६६॥ काऊण घोररूवं, रुट्ठो संभरिय सब्वविज्जाओ । अह पव्वयस्स डेट्ठा, भूमी भेत्तुं चिय पविट्टो ||६७ ॥ हक्खुविऊण पयत्तो, भुयासु सघायरेण उप्पिच्छो । रोसाणलरत्तच्छो, खरमुहररवं पकुव्वन्तो ।। ६८ ।। आकम्पियमहिवेढं विहडियवढसन्धिबन्धणामूलं । अह पव्वयं सिरोवरि भुयासु दूरं समुद्धर ।।६९।। लम्बन्तवीहविसहर-भीउयविविहासावय-विहङ्गं । तडपडणबुभियनिज्झर चलन्तघणसिहरसंघायं ॥ ७० ॥ खरपवणरेणुपसरिय-गयणयलोच्छइयदसदिसायक्कं । जायं तम - ऽन्धयारं, तहियं अट्ठावउद्धरणे ॥ ७१ ॥ उव्वेल्ला सलिलनिही, विवरीयं चिय वहन्ति सरिसायओ । निग्घायपडन्तरखं, उक्का -ऽसणिगब्भिणं भुवनं ।। ७२ ।। विज्जाहरा विभीया, असि - खेडय- कप्प-तोमरविहत्थं । किं किं ? ति उल्लावन्ता, उप्पइया नहयलं तुरिया || ७३ ॥ परमावहीऍ भगवं, वाली नाऊण गिरिवरूद्धरणं । अणुकम्पं पडिवन्नो, भरहकयाणं जिणहराणं ॥ ७४ ॥ एयाण रक्खण्डं, करेमि न य जीवियव्वयनिमित्तं । मोत्तृण राग-दोसं, पवयणवच्छल्लभावेण ।। ७५ ।। से वह पूर्ण था, उसकी दोनों भुजाएँ लटक रही थीं, वह निश्चल ध्यान में आरूढ़ था और मेरु की भाँति वह अडिग और धीर था। (६२) पहले का और याद करके दशवदन भौहें तानकर मुनिवर वाली को एकदम कठोर वचन कहने लगा कि मुनि होकर के भी पहले के अपराध से उत्पन्न रोषवश जो यह मेरा विमान तूने रोक रखा है यह बहुत ही सुन्दर किया ! (६३-६४ ) तेरी प्रव्रज्या कहाँ गई ? सम्यग् आचर संयम और तप कहाँ गया ? चूँकि तू राग एवं द्वेष धारण किये हुए है, अतः तेरा सब कुछ विनष्ट हो गया। (६५) मैं तेरा घमण्ड और इस पर्वत को भी तेरे ही सामने चकनाचूर करता हूँ। सबको जड़मूल से उखाड़कर समुद्र में जल्दी ही फेंकता हूँ (६६) इस प्रकार कहकर और सर्व विद्याओं को यादकर रुष्ट रावण ने भयंकर रूप धारण किया । बादमें ज़मीन तोड़कर वह पर्वतके नीचे प्रविष्ट हुआ। (६७) रोषरूपी अग्नि से लाल-लाल आँखों वाला तथा कठोर एवं तुमुल कोलाहल करता हुआ वह गुस्से में आकर पूरे बल के साथ अपनी भुजाओं से उसे उखाड़ लगा। (६८) पृथ्वी से वेष्टित उस पर्वत को हिलाकर, मूल में से ही उसके मज़बूत जोड़ों को विच्छिन्न करके तथा सिर पर उसे धारण करके भुजाओं द्वारा वह उसे दूर तक उठा ले गया । (६९) उस पर्वत पर बड़े-बड़े साँप लटक रहे थे, अनेक प्रकार के पशु एवं पक्षी भयवश इधर-उधर भाग रहे थे, किनारों के गिरने से झरने क्षुब्ध हो उठे थे और शिखरों के समूह बादलों की तरह चल से रहे थे। (७०) उस समय अष्टापद के उठाने के कारण तेज़ पवन में मिली धूल के फैलने से आकाश आच्छादित हो गया तथा सभी दिशाओं में अन्धकार व्याप्त हो गया। (७१) समुद्र अपना किनारा लाँघकर चारों ओर फैल गया, नदियाँ उल्टी बहने लगीं, बिजली के गिरने का भयंकर शब्द होने लगा और पृथ्वी में भीतर से उथल-पुथल मच गई। (७२) तलवार, ढाल, कल्प (शस्त्रविशेष) एवं बाण हाथों में से गिरने के कारण विद्याधर भी भयभीत हो गये । 'यह क्या हुआ ? यह क्या हुआ ?' ऐसा बोलते हुए वे शीघ्र ही में उड़े। (७३) परमावधिज्ञान से पर्वत का ऊपर उठाना जानकर भरत चक्रवर्तीकृत जिनमन्दिरों की रक्षा के लिये भगवान् वाली को दया आई। (७४) राग-द्वेष का त्याग करके जिनोपदेश के प्रति वात्सल्यभाव के कारण, न कि अपने जीवन के हेतु, मैं इनकी रक्षा करता हूँ ऐसा सोचकर उसने अपने पैर के अँगूठे - 19 Paumachariyam
SR No.009854
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy