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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth पउमचरियं के वाली निर्वाणप्राप्ति नामक नवमें उद्देश में रावण का अष्टापदगमन तथा वालीमुनि द्वारा पराभव का संदर्भ - सुग्गीवो वि हु कन्नं, सिरिप्पमं देह रक्खसिन्दस्स। किक्किन्धिमहानयरे, करेइ रज्जं गुणसमिद्धं ॥५०॥ विज्जाहरमणुयाणं, कन्नाओ रूवजोव्वणधरीओ। अक्कमिय विक्कमेणं, परिणेइ दसाणणो ताओ ॥५१॥ निच्चालोए नयरे, निच्चालोयस्स खेयरिन्दस्स। रयणावलि त्ति दुहिया, सिरिदेवीगब्भसंभूया ॥५२॥ तीए विवाहहेडं, पुप्फविमाणट्ठियस्स गयणयले। वच्चन्तस्स निरुद्धं, जाणं अट्ठावयस्सुवरि ॥५३॥ दह्ण अवच्चन्तं, पुप्फविमाणं तओ परमरुठ्ठो। पुच्छइ रक्खसनाहो, मारीइ ! किमेरिसं जायं ? ॥५४॥ अह साहिउं पयत्तो, मारीई को वि नाह ! मुणिवसहो। तप्पइ तवं सुघोरं, सूराभिमुहो महासत्तो ॥५५॥ रावणस्य अष्टापदे अवतरणम् : एयस्स पभावेणं, जाणविमाणं न जाइ परहुत्तं । अवयरह नमोक्कार, करेह मुणि पावमहणस्स ॥५६।। ओयारियं विमाणं, पेच्छइ कविलासपव्वयं रम्म। दूरुन्नयसिहरोह, मेहं पिव सामलायारं ॥५७।। घणनिवह-तरुणतरुवर-कुसुमालिनिलीणगुमुगुमायारं। निज्झरवहन्तनिम्मल-सलिलोहप्फुसियवरकडयं ।।५८ ।। कडयतडकिन्नरोरग-गन्धव्वुग्गीयमहुरनिग्घोसं । मय-महिस-सरह-केसारि-वराह-रुरु-गयउलाइण्णं ।।५९ ।। सिहरकरनियरनिग्गय-नाणाविहरणमणहरालोयं । जिणभवणकणयनिम्मिय-उब्भासेन्तं दस दिसाओ ॥६॥ अवइण्णो दहवयणो, अह पेच्छइ साहवं तहिं वाली । झाणपइट्ठियभावं, आयावन्तं सिलावट्टे ॥१॥ रावण का अष्टापद-गमन तथा वाली मुनि द्वारा पराभव : सुग्रीव ने श्रीप्रभा नामक कन्या राक्षसेन्द्र रावण को दी और महानगरी किष्किन्धि में सुख, सदाचार आदि गुणों से समृद्ध ऐसा राज्य करने लगा।(५०) बलपूर्वक आक्रमण करके विद्याधर एवं मनुष्यों की रूप व यौवन से युक्त कन्याओं के साथ दशानन ने विवाह किया। (५१) नित्यालोक नामक नगर में खेचरेन्द्र नित्यालोक की तथा श्रीदेवी के गर्भ से उत्पन्न रत्नावली नामक लड़की थी। (५२) उसके साथ विवाह के निमित्त पुष्पक विमान में बैठकर आकाश मार्ग से जाते हुए रावण का विमान अष्टापद के ऊपर रुक गया। (५३) जाते हुए विमान को इस प्रकार स्थिर देखकर अत्यन्त रुष्ट राक्षसनाथ पूछने लगा कि मारीचि, ऐसा क्यों हुआ ? (५४) इस पर मारीचि ने कहा कि, हे नाथ ! सूर्य की ओर अभिमुख होकर कोई महाशक्तिशाली मुनिवर अत्यन्त घोर तप कर रहा है। (५५) उसके प्रभाव से यह विमान आगे नहीं जा रहा है। अतः नीचे उतरो और पाप का नाश करनेवाले मुनि को नमस्कार करो। (५६) विमान को नीचे उतारकर उसने सुन्दर, बहुत ऊँचे शिखरों के समूह से युक्त तथा। बादल सदृश श्याम वर्णवाले कैलास पर्वत को देखा ।(५७) वह सघन एवं तरुण वृक्षराजि के पुष्पों में लीन भौंरों की गुंजार से व्याप्त था, बहते हुए झरनों के निर्मल पानी के समूह से उसका सुन्दर मध्य भाग स्पृष्ट था; उसका मूल भाग किन्नर, नाग एवं गन्धर्यों के सुमधुर संगीत के निर्घोष से युक्त था; हिरन, भैंसे, गैंडे, सिंह, सूअर, रुरु (मृगविशेष) व हाथी के समूहों से वह व्याप्त था; शिखररूपी हाथों के समूह में से बाहर निकले हुए अनेक प्रकार के रत्नों के मनोहर आलोक से वह आलोकित था तथा दसों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाले स्वर्णविनिर्मित जिनमन्दिरों से वह युक्त था। (५८-६०) ऐसे कैलास पर्वत पर रावण उतरा। वहाँ पर उसने ध्यानभाव में स्थित तथा एक गोल शिला पर सूर्य की धूप में शरीर को तपाते हुए वाली को देखा ।(६१) उसका वक्षःस्थल बड़ा और विशाल था, तप की शोभा Paumachariyam - 18
SR No.009854
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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