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________________ उससे पूछा कि 'मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रहा है ?" हृदयने कहा - 'महात्माजी ! मुझे कुछ शिक्षा दीजिए।' साधुने उत्तर दिया- 'जब तू इस गन्दे घड़ेके पानीको और गङ्गाजलको समान समझेगा और जब इस बाँसुरीकी आवाज़ और इस जन-समूहकी कर्कश आवाज़ तेरे कानोंको समान मधुर लगेगी, तब तू सच्चा ज्ञानी बन सकेगा ।' हृदयने लौटकर श्रीरामकृष्ण 'उस साधुको वास्तव में ज्ञान और हुए साधु समदर्शी होते हैं ।' परमहंससे कहा । श्रीपरमहंस बोले-भक्तिकी कुञ्जी मिल चुकी है । पहुँचे भय ! एक बार गुरु मच्छिन्द्रनाथ अपने शिष्य गोरखनाथके साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में गुरुने अपनी झोली शिष्यको ले चलनेके लिए दे दी । गोरखनाथको वह झोली भारी-भारी लगी । चुपकेसे देखा तो सोनेकी ईटें ! आगे चलकर गुरुने मुड़कर शिष्यसे पूछा - 'बेटा, हमे इस निर्जन वनमे से होकर जाना है, रास्तेमें कुछ भय तो नहीं है ?" गोरखनाथ बोले- 'गुरुजी, भयको तो मै कभीका रास्तेमे फेंक आया हूँ, आप निश्चिन्त होकर चले चलिए ।' सहनशीलता पुराने ज़माने में किसी शहर में एक वृद्ध महात्माको किसी झूठे इलज़ाममें पकड़कर कोड़े लगाये जा रहे थे । लेकिन महात्मा शान्त और अविचल भावसे सहन किये जा रहे थे । एक सज्जन ने यह दृश्य देखा । पास जाकर पूछा - 'महाराज ! आप तो इतने वृद्ध और दुर्बल हैं फिर भी ऐसी सख्त मारको शान्त भावसे कैसे सह रहे है ?' महात्मा बोले— 'विपत्तिको आत्मशक्ति से सहा जाता है, शरीर - बलसे नहीं ।' ૪ सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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