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________________ ब्राह्मण-'एक तो है बदमाश नारद । मेरे प्रभुके आरामका ख्याल रक्खे बगैर सदा भजन-कीर्तनसे उन्हें जाग्रत रखता है ! दूसरी है धृष्ट द्रौपदी-उसने मेरे प्रभुको ठीक उस वक़्त पुकारा जब कि वे भोजन करने बैठे ही थे। उन्हें खाना छोड़कर तत्काल दुर्वासा ऋपिके शापसे पाण्डवों को बचाने जाना पड़ा ! उसकी धृष्टता यहाँ तक बढ़ी कि उसने अपना बचा-खुचा जूठा खाना भगवान्को खिलाया ! तीसरा है हृदयहीन प्रहलाद-उस निर्दयने मेरे भगवान्को गरम तेलके कड़ाहमें प्रविष्ट कराया, हाथीके पैरोंके नीचे कुचलवाया और खंभेमें से प्रकट होनेके लिए विवश किया ! चौथा है बदमाश अर्जुन । उसकी गुस्ताखी देखो ! उसने मेरे प्रिय भगवान्को अपने रथका सारथी बना डाला !' अर्जुन उस ब्राह्मणकी भक्ति और प्रेमको देखकर दंग रह गया। उसे यह ग़रूर फिर कभी न हुआ कि मैं ही भगवान्का सबसे बड़ा भक्त हूँ। रावणकी रामभक्ति मंदोदरी अपने पति रावणसे बोली-'अगर तुम्हें सीताको अपनी रानी बनानेको इतनी तीव्र इच्छा है तो तुम उसके पास रामका रूप रखकर क्यों नहीं जाते?' क्या बकती है !' रावण बोला । 'रामका पवित्र रूप धारण करके क्या मैं इन्द्रिय-भोगोंमे लिप्त हो सकता हूँ?-उस दिव्य रूपका तो ध्यान आते ही मैं ऐसे अनिर्ववनीय आनन्द और धन्यतासे ओतप्रोत हो जाता हूँ कि बैकुण्ठ भी तुच्छ नज़र आने लगता है !' गुरु गोविन्द सिंह एक बार गुरु गोविन्दसिंह जमुनाके किनारे बैठे हुए थे। उस वक़्त उनका एक धनवान् भक्त आया और उनके आगे दो रत्नजटित सोनेको चूड़ियाँ रखकर उन्हें स्वीकार करनेको प्रार्थना करने लगा। ३४ सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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