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________________ लिए लोग विश्वास करते कि वह धोखा नहीं दे सकता । लेकिन जब कभी ग्राहक उसकी दुकान पर आते तो उसकी सहायक - मंडली में से एक कहता'केशव ! केशव !' कुछ देर में दूसरा कहता - 'गोपाल ! गोपाल !' तब तीसरा बोलता - 'हरि ! हरि' । अन्तमें एक कहता 'हर ! हर !' ईश्वरके इन नामोंका उच्चार होते देख ग्राहकोंका उसकी प्रामाणिकता पर विश्वास और भी दृढ़ हो जाता । लेकिन ईश्वरके ये नाम उस धूर्त सुनार द्वारा सांकेतिक शब्दों ( Code words ) के तौरपर इस्तेमाल किये जाते थे । जो आदमी 'केशव' केशव' कहता उसका तात्पर्य यह पूछनेका था कि 'ये ग्राहक कैसे हैं ?' जो 'गोपाल, गोपाल' कहता वह जतलाता कि 'ये लोग बिलकुल बैल हैं ।' यह अनुमान वह उनसे थोड़ी देरकी बात-चीतमें ही लगा लेता था । 'हरि, हरि' कहने वाला पूछता - 'तो क्या हम इन्हे लूटें ? इसका जवाब 'हर, हर' कहने वाला देता - ' इन बैलोंको ज़रूर लूट लो ।' भक्त एक बार अर्जुनको यह अहंकार हुआ कि मैं ही भगवान्‌का सबसे बड़ा भक्त हूँ | श्रीकृष्णने उसके दिलकी यह बात जान ली । वे उसे टहलाने ले गये । रास्ते में उन्होंने एक अजीब ब्राह्मण देखा । वह सूखी घास खा रहा था, फिर भी उसकी कमरसे तलवार लटकी हुई थी । अर्जुनने उससे कहा - 'आप तो अत्यन्त अहिंसक मालूम होते हैं कि जीवहिंसाके डर से सूखी घास खाते हैं । फिर भी हिंसाका उपकरण, तलवार, क्यों लिये हुए हैं ?' ब्राह्मण बोला -- 'यह चार व्यक्तियोंको दंड देनेके लिए है । अगर वे मुझे मिल जाँय तो उनके सिर उड़ा दूँ ।' अर्जुन - 'कौन हैं वे ?' सन्त-विनोद ३३
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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