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________________ है । अगर मुझे ऐसी सेना दी जाय जिसमें सिर्फ प्रेमी-ही-प्रेमी हों तो मैं निश्चय ही विश्व-विजय कर लूं।' पासनियस बोला-'बात बिल्कुल ठीक है, फिर भी आपको पार्थिव प्रेम और दिव्य ईश-प्रेमका फ़र्क तो मंजूर करना ही पड़ेगा । सामान्य प्रेम, रूपमोह, चमड़ीके सौन्दर्यपर लुब्ध मनकी यह दशा होती है कि यौवनके अन्त होते-न-होते उसके पंख जम जाते हैं और वह उड़ जाता है। लेकिन परमात्म-प्रेम सनातन होता है और उसकी गति निरन्तर विकासोन्मुख ही रहती है।' सुकरातसे प्रार्थना किये जानेपर वो वोले-'प्रेम ईश्वरीय सौन्दर्यकी भख है । प्रेमी प्रेमके द्वारा अमरत्वकी तरफ़ बढ़ता है। विद्या, पुण्य, यश, उत्साह, शौर्य, न्याय, श्रद्धा और विश्वास ये सब उस सौन्दर्य के ही रूप हैं। आत्मिक सौन्दर्य ही परम सत्य है। और सत्य वह मार्ग है जो परमेश्वर तक पहुँचा देता है।' __सुकरातके इस कथनका प्लेटो ( अफ़लातून ) पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उसी दिनसे उनका शिष्य हो गया । यही प्लेटो आगे चलकर यूनानका सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक कहलाया। गर्व यूनानमें एक ज़मींदार था, उसे अपनी सम्पत्ति और जागीरका बड़ा गर्व था। एक बार सुकरातके सामने वह अपने वैभवकी शान छाँटने लगा। कुछ देरतक तो सुक़रात चुपचाप सुनते रहे। बाद में उन्होंने दुनियाका एक नक़शा मंगाया। नक़शा फैलाकर वह जमींदारसे बोले'आप इसमें अपना यूनान देश देखते हैं ?' 'यह रहा यूनान,' ज़मींदारने नक़शेपर अंगुली रखकर बताया। 'और अपना ऐटिका प्रान्त ?' सुकरातने पूछा। सन्त-विनोद १०७
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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