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________________ महानिशीथ - २/३/४०३ २०५ साधनेवाली है । सर्वोत्तम मंगल की निधि है । वो श्रुत देवता है, सरस्वती है । पवित्र देवी है; अच्युता देवी है, इन्द्राणी है, परमपवित्रा उत्तमा है । सिद्धि मुक्ति शाश्वत शिवगति नाम से संबोधन करने के लायक है । [ ४०४] यदि वो स्त्री वेदना न सहे और अकार्याचरण करे तो वो स्त्री, अधन्या, अपुण्यवंती, अवंदनीय, अपूज्य न देखनेलायक विना लक्षण के तूटे हुए भाग्यवाली, सर्व अमंगल और अकल्याण के कारणवाली, शीलभ्रष्टा, भ्रष्टाचारवाली, निन्दनीया, नफरतवाली, घृणा करनेलायक पापी, पापी में भी महा पापीणी, अपवित्रा है । हे गौतम! स्त्री होशियारी से, भय से, कायरता से, लोलुपता से, उन्माद से, कंदर्प से, अभिमान से, पराधीनता से, बलात्कार से जान-बुझकर यह स्त्री संयम और शील में भ्रष्ट होती है । दूर रहे रास्ते के मार्ग में, गाँव में, नगर में, राजधानी में, वेश त्याग किए विना स्त्री के साथ अनुचित आचरण करे, बार-बार पुरुष भुगतने की इच्छा करे, पुरुष के साथ क्रीड़ा करे तो आगे कहने के मुताबिक वो पापिणी देखने लायक भी नहीं है । उसी प्रकार किसी साधु ऐसी स्त्री को देखे फिर उन्माद से, अभिमान से, कंदर्प से, पराधीनता से, स्वेच्छा से, जानबुझकर पाप का ड़र रखे बिना कोई आचार्य, सामान्य साधु, राजा से तारिफ पाए गए, वायु लब्धिवाले, तप लब्धिवाले, योग लब्धिवाले, विज्ञान लब्धिवाले, युग प्रधान, प्रवचन प्रभावक ऐसे मुनिवर भी यदि वो अगर दुसरी स्त्री के साथ रमण क्रीड़ा करे, उसकी अभिलाषा करे । भुगतना चाहे या भुगते बार-बार भुगते यावत् अति राग से न करने लायक आचार सेवन करे तो वो मुनि अति दुष्ट, तुच्छ, क्षुद्र, लक्षणवाला अधन्य, अवंदनीय, अदर्शनीय अहितकारी, अप्रशस्त, अकल्याणकर, मंगल, निंदनीय, गर्हणीय, नफरत करनेलायक दुगंच्छनीय है, वो पापी है और पापी में भी महापापी है वो अति महापापी है, भ्रष्टशीलवाला, चारित्र से अति भ्रष्ट होनेवाला महापाप कर्म करनेवाला है । इसलिए जब वो प्रायश्चित लेने के लिए तैयार हो तब वो उस मंद जाति के अश्व की तरह वज्रऋषभनाराचसंघयणवाले उत्तम पराक्रमवाले, उत्तम सत्त्ववाले, उत्तम तत्त्व के जानकार । उत्तमवीर्य सामर्थ्यवाले, उत्तम संयोगवाले, उत्तम धर्म श्रद्धावाले प्रायश्चित् करते वक्त उत्तम तरह के समाधि मरण की दशा का अहेसास करते है । हे गौतम ! इसलिए वैसे साधुओ की महानुभाव अठ्ठारह पाप स्थानक का परिहार करनेवाले नव ब्रह्मचर्य की गुप्ति का पालन करनेवाले ऐसे गुणयुक्त उन्हें शास्त्र में बताए है । [ ४०५] हे भगवंत् ! क्या प्रायश्चित् से शुद्धि होती है ? हे गौतम! कुछ लोगों की शुद्धि होती है और कुछ लोगों की नहीं होती । हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हो कि एक की होती है और एक की नहीं होती ? हे गौतम ! यदि कोई पुरुष माया, दंभ, छल ठगाई के स्वभाववाले हो, वक्र आचारवाला हो, वह आत्मा शल्यवाले रहकर, प्रायश्चित् का सेवन करते है । इसलिए उनके अंतःकरण विशुद्धि न होने से कलुषित आशयवाले होते है । इसलिए उनकी शुद्धि नहीं होती । कुछ आत्मा सरलतावाली होती है, जिससे जिस प्रकार दोष लगा हो उस प्रकार यथार्थ गुरु को निवेदन करते है । इसलिए वो निशल्य, निःशंक पूरी तरह साफ दिल से प्रकट आलोचना अंगीकार करके यथोक्त नजरिये से प्रायश्चित् का सेवन करे ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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