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________________ १९४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद का प्रमादाचरण सेवन से-दोष लगता है । [३०१] यह लगनेवाले दोष की विधिवत् त्रिविध से निंदा, गर्हा, आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित् किए बिना दोष की शुद्धि नहीं होती । [३०२] शल्यसहित रहने से अनन्ता बार गर्भ में १, २, ३, ४, ५, ६ मास तक उसकी हड्डियाँ, हाथ, पाँव, मस्तक आकृति न बने, उसके पहले ही गर्भ के भीतर विलय हो जाता है यानि गर्भ पीगल जाता है । ३०३-३०६] मानव जन्म मिलने के बावजूद वह कोढ़-क्षय आदि व्याधिवाला बने, जिन्दा होने के बावजुद भी शरीर में कृमि हो । कईं मक्खियाँ शरीर पर बैठे, बणबणकर उड़े, हमेशा शरीर के सभी अंग सड़ जाए, हड्डियाँ कमजोर बने आदि ऐसे दुःख से पराभव पानेवाला अति शर्मीला, बुरा, गर्हणीय कई लोगों को उद्धेग करवानेवाला बने, नजदीकी रिश्तेदारों को और बन्धुओ को भी अनचाहा उद्धेग करवानेवाला होता है । ऐसे अध्यवसाय- परिणाम विशेष से अकाम-निर्जरा से वो भूत-पिशाचपन पाए । पूर्व भव के शल्य से उस तरह के अध्यवसाय विशेष से कईं भव के उपार्जन किए गए कर्म से दशों दिशा में दूर-दूर फेंका जाए कि जहाँ आहार और जल की प्राप्ति मुश्किल हो, साँस भी नहीं ली जाए, ऐसे विरान अरण्य में उत्पन्न हो । [३०७-३०९] या तो एक-दुसरे के अंग-उपांग के साथ जुड़े हुए हो, मोह-मदिरा में चकचूर बना, सूर्य कब उदय और अस्त होता है उसका जिसे पता नहीं चलता ऐसे पृथ्वी पर गोल कृमिपन से उत्पन्न होते है । कृमिपन की वहाँ भवदशा और कायदशा भुगतकर कभी भी मानवता पाते हुए लेकिन नपुंसक उत्पन्न होता है । नपुंसक होकर अति क्रूर-घोर-रौद्र परीणाम का वहन करते और उस परीणामरूप पवन से जलकर-गीरकर मर जाता है और मरकर वनस्पतिकाय में जन्म लेता है । ३१०-३१३] वनस्पतिपन पाकर पाँव ऊपर और मुँह नीचे रहे वैसे हालात में अनन्तकाल बीताते हुए बेइन्द्रियपन न पा शके वनस्पतिपन की भव और कायदशा भुगतकर बाद में एक, दो, तीन, चार, (पाँच) इन्द्रियपन पाए । पूर्व किए हुए पाप शल्य के दोष से तिर्यंचपन में उत्पन्न हो तो भी महामत्स्य, हिंसक पंछी, साँढ जैसे बैल, शेर आदि के भव पाए । वहाँ भी अति क्रूरतर परीणाम विशेष से माँसाहार, पंचेन्द्रिय जीव का वध आदि पापकर्म करने की कारण से गहरा उतरता जाए कि साँतवी नरकी तक भी पहुँच जाए । [३१४-३१५] वहाँ लम्बे अरसे तक उस तरह के महाघोर दुःख का अहेसास करके फिर से रतिर्यंच के भव में पैदा होकर कुर पापकर्म करके वापस नारकी में जाए इस तरह नरक और तिर्यंच गति के भव का बारी-बारी परावर्तन करते हुए कई तरह के महादुःख का अहेसास करते हुए वहाँ हुए के जो दुःख हे उनका वर्णम करोड़ साल बाद भी कहने के लिए शक्तिमान न हो शके । [३१६-३१८] उसके बाद गधे, ऊँट, बैल आदि के भव-भवान्तर करते हुए गाड़ी का बोज उठाना, भारवहन करना, कीलकयुक्त लकड़ी के मार का दर्द सहना, कीचड़ में पाँव फँस जाए वैसे हालात में बोज उठाना । गर्मी, ठंडी, बारीस के दुःख सहना, वध बँधन, अंकन
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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