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________________ महानिशीथ - २/२/२८६ १९३ बोलता है, सामनेवाले को अच्छे न लगनेवाले अनिष्ट वचन सुनाते है कामदेव के अगर शठपन अभिमान से दुराग्रह से बार-बार बोले, कहलाए या उसकी अनुमोदना करे, क्रोध से लालच से, भय से, हास्य से, असत्य, अप्रिय, अनिष्ट वचन बोले तो उस कर्म के उदय से गूँगा, बूरे मुँहवाला, मूरख, बिमार, निष्फल वचनवाला हर एक भव में अपनी ही ओर से लाघवलघुपन, अच्छे व्यवहारवाला होने के बावजूद हर एक जगह बार-बार झूठे कलंक पानेवाला होता है । [ २८७ ] जीवनिकाय के हित के लिए यथार्थ वचन बोला गया हो वो वचन निर्दोष है और शायद असत्य हो तो भी असत्य का दोष नहीं लगता । [ २८८] ईस प्रकार चोरी आदि के फल जानना, खेत आदि आरम्भ के कर्म करके प्राप्त धन की इस भव में या पूर्व जन्म में किए पाप से हानि होती दिखती है । अध्ययन - २ उद्देशक - ३ [ २८९-२९१] उस प्रकार मैथुन के दोष से स्थावरपन भुगतकर कुछ अनन्तकाल मानव योनि में आए । मानवपन में भी कुछ लोगों की होजरी मंद होने से मुश्किल से आहार पाचन हो । शायद थोड़ा ज्यादा आहार भोजन करे तो पेट में दर्द होता है । या तो पलपल प्यास लगे, शायद रास्ते में उनकी मौत हो जाए । बोलना बहुत चाहे इसलिए कोई पास में न बिठाए, सुख से किसी स्थान पर स्थिर न बैठ शके, मुश्किल से बैठे, स्थान मिले तो भी कला-विज्ञान रहित होने से कहीं आवकार न मिले, पाप उदयवाला वो बेचारा निद्रा भी न पा शके । [२९२-२९३] इस प्रकार परिग्रह और आरम्भ के दोष से नरकायुष बाँधकर उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम के काल तक नारकी की तीव्र वेदना से पीड़ित है । चाहे कितना भी - तृप्त हो उतना भोजन करने के बावजूद भी संतोष नहीं होता, मुसाफिर को जिस तरह शान्ति नहीं मिलती उसी तरह यह बेचारा भोजन करने के बाद भी तृप्त नहीं होता । [२९४-२९५] क्रोधादिक कपाय के दोष से घो आशीविष दृष्टिविष सर्पपन पाकर, उसके बाद रौद्रध्यान करनेवाला मिथ्यादृष्टि होता है, मिथ्यादृष्टिवाले मानवपन में धूर्त, छल, प्रपंच, दंभ आदि लम्बे अरसे तक करके अपनी महत्ता लोगों को दिखाते हुए उस छल करते हुए उन्होंने तिर्यंचपन पाया । [२९६-२९८] यहाँ भी कईं व्याधि रोग, दुःख और शोक का भाजन बने । दरिद्रता और क्लेश से पराभवित होनेवाला कईं लोगों की नफरत पाता है । उसके कर्म के उदय के दोष से हमेशा फिक्र से क्षीण होनेवाले देहवाला इर्षा-विषाद समान अग्नि ज्वाला से हमेशा धधण- जल रहे शरीरवाले होते है । ऐसे अज्ञान बाल- जीव कईं दुःख से हैरान-परेशान होते है । उसमें उनके दुश्चरित्र का ही दोष होता है । इसलिए वो यहाँ किस पर गुस्सा करे ? [२९९-३००] इस तरह व्रत - नियम को तोड़ने से, शील के खंड़न से, असंयम में प्रवर्तन करने से, उत्त्सूत्रप्ररूपणा मिथ्यामार्ग की आचरणा-पवर्ताव से, कई तरह की प्रभु की आज्ञा से विपरीत आचरण करने से, प्रमादाचरण सेवन से, कुछ मन से या कुछ वचन से या कुछ अकेली काया से करने से करवाने से और अनुमोदन करने से मन, वयन, काया के योग 10 13
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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