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________________ अन्तकृदशा-३/८/१३ उन छहों मुनियों को वंदन-नमस्कार करके जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे वहाँ आई, अरिहन्त अरिष्टनेमि को वन्दन-नमस्कार करके उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ होती है । रथारूढ हो जहां द्वारका नगरी थी, वहाँ आकर द्वारका नगरी में प्रवेश कर अपने प्रासाद के बाहर की उपस्थानशाला आती है, धार्मिक स्थ से नीचे उतर कर जहां अपना वासगृह था, जहां अपनी शय्या थी उस पर बैठ जाती है । उस समय देवकी देवी को इस प्रकार का विचार, चिन्तन और अभिलाषापूर्ण मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि अहो ! मैंने पूर्णतः समान आकृति वाले यावत् नलकूबर के समान सात पुत्रों को जन्म दिया पर मैंने एक की भी बाल्यक्रीडा का आनन्दानुभव नहीं किया । यह कृष्ण वासुदेव भी छह-छह मास के अनन्तर चरण-वन्दन के लिये मेरे पास आता है, अतः मैं मानती हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, जिनकी अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुए, स्तन-पान के लोभी बालक, मधुर आलाप करते हुए, तुतलाती बोली से मन्मन बोलते हुए जिनके स्तनमूल कक्षाभाग में अभिसरण करते हैं, एवं फिर उन मुग्ध बालकों को जो माताएं कमल के समान अपने कोमल हाथों द्वारा पकड़ कर गोद में बिठाती हैं और अपने बालकों से मधुर-मंजुल शब्दों में बार बार बातें करती हैं । मैं निश्चितरूपेण अधन्य और पुण्यहीन हूँ क्योंकि मैंने इनमें से एक पुत्र की भी बालक्रीडा नहीं देखी । इस प्रकार देवकी खिन्न मन से यावत् आर्तध्यान करने लगी । उसी समय वहां श्रीकृष्ण वासुदेव स्नान कर यावत् विभूषित होकर देवकी माता के चरण-वंदन के लिये शीघ्रतापूर्वक आये । वे कृष्ण वासुदेव देवकी माता के दर्शन करते हैं, चरणों में वंदन करते हैं । फिर देवकी देवी से इस प्रकार पूछने लगे-“हे माता ! पहले तो मैं जब-जब आपके चरण-वन्दन के लिये आता था, तब-तब आप मुझे देखते ही हृष्ट तुष्ट यावत् आज आर्तध्यान में निमग्न-सी क्यों दिख रही हो ?" कृष्ण द्वारा इस प्रकार का प्रश्न किये जाने पर देवकी देवी कृष्ण वासुदेव से कहने लगी हे पुत्र ! वस्तुतः बात यह है कि मैंने समान आकृति यावत् समान रूप वाले सात पुत्रों को जन्म दिया । पर मैंने उनमें से किसी एक के भी बाल्यकाल अथवा बाल-लीला का सुख नहीं भोगा । पुत्र ! तुम भी छह छह महीनों के अन्तर से मेरे पास चरण-वंदन के लिये आते हो । अतः मैं ऐसा सोच रही हूँ कि वे माताएं धन्य हैं, यावत् आर्तध्यान कर रही हूँ। माता की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण वासुदेव देवकी महारानी से इस प्रकार बोले“माताजी ! आप उदास अथवा चिन्तित होकर आर्तध्यान मत करो । मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा जिससे मेरा एक सहोदर छोटा भाई उत्पन्न हो ।" इस प्रकार कह कर श्रीकृष्ण ने देवकी माता को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ वचनों द्वारा धैर्य बंधाया, आश्वस्त किया । श्रीकृष्ण अपनी माता के प्रासाद से निकले, जहां पौषधशाला थी वहां आये । आकर अभयकुमार के समान अष्टमभक्त तप स्वीकार करके अपने मित्र देव की आराधना की । विशेषता यह कि इन्होंने हरिणैगमेषी देव की आराधना की । आराधना में अष्टम भक्त तप ग्रहण किया, यावत् हरिणैगमेषि देव आराधना से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण के पास आया । तब श्रीकृष्णने हाथ जोडकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! आप मुझे एक सहोदर लघुभ्राता दीजीए, यही मेरी इच्छा है ।
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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