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________________ १५८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सदा स्वाधीन हैं । वे यह हैं-वसन्त और ग्रीषम । उसमें [१२०] वसन्त रूपी ऋतू-राजा सदा विद्यमान रहता हैं । वसन्त-राजा के आम्र के पुष्पों का मनोहर हार हैं, किंशुक कर्णिकार और अशोक के पुष्पों का मुकुट है तथा ऊँचेऊँचे तिलक और बकुल वृक्षों के फूलों का छत्र हैं । और उसमें [१२१] उस वनखण्ड में ग्रीष्म ऋतु रूपी सागर सदा विद्यमान रहता है । वह ग्रीष्मसागर पाटल और शिरीष के पुष्पों रूपी जल से परिपूर्ण रहता है । मल्लिका और वासन्तिकी लताओं के कुसुम ही उसकी उज्जवल वेला-ज्वार है । उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है ।। .[१२२] देवानुप्रियों ! यदि तुम वहां भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जाओ तो उस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना । मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना । दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता हैं । उसका विष उग्र हैं, प्रचंड है, घोर हैं अन्य सब सों से उसका शरीर बड़ा है । इस सर्प के अन्य विशेषण गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना । वे इस प्रकार हैं-वह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला हैं, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है । उसकी आभा काजल के ढेर के समान काली हैं । उसकी आँखें लाल हैं । उसकी दोनों जीभे चपल एवं लपलपाती रहती हैं । वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान है । वह सर्प उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश और विकट फटाटोप करने में दक्ष हैं । लोहार की भट्ठी में धौका जानेवाला लोहा समान है, वह सर्प भी 'धम-धम' करता रहता हैं । उसके प्रचंड एवं तीव्र रोष को कोई नहीं रोक सकता । कुत्ती के भौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्धम् शब्द करता रहता हैं । उसकी दृष्टि में विष है, अतएव कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय । रत्नद्वीप की देवी ने यह बात दो तीन बार उन माकंदीपुत्रों से कहकर उसने वैक्रिय समुद्रघात से विक्रिया की । विक्रिया करके उत्कृष्ट-उतावली देवगीत से इक्कीस बार लवण-समुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई। [१२३] वे माकंदीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में कहने लगे- 'देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिए । वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आये । आकर उस वन के बावड़ी आदि में यावत् क्रीड़ा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे । तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहां भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुआ अनुक्रमसे उत्तर दिशा और पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गये । वहाँ जाकर बावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे । तब वे माकंदीपुत्र वहां भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना । तो इसमें कोई कारण होना चाहिए । अतएव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए ।' इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार करके उन्होंने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का संकल्प किया-रवाना हुए ।
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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